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प्रयमः सर्गः
१०७ घण्टापथ-पुरेति । हे नृप, यदेत-पुरोवर्ति वपुः पुरा द्विजातिशेपेण दिनभुक्तावशिष्टेनान्धसान्नेन । 'मिस्सा स्त्री भनमन्धोऽन्नम्' इत्यमरः । रमणीयस्य भावो रामणीयकं मनोहरत्वमुपनीतं प्रापितम् । नयतेफिर्मकत्वात् । प्रधाने कर्मणि क्तः । प्रधानफर्मण्यालयेये लादीनादुर्मिकर्मणाम् इति वचनात् । अद्य वन्यफलाशिनः ते तव वपुर्यशाला सम परमतिमानं काश्यं परति प्राप्नोति । उभयमपि क्षीयत इत्यर्थः। अत्र सहोक्तिरलंकारः। तदुर्गमाव्यप्रकाशे–'सा सहोक्तिः सहार्थस्य बलाटकं निवाचाम् इति ॥ ३६ ।। अनारतं यो मणिपीठशायिनायरायद्वाजगिराम्रजां रजः। निपीदतस्ती चरणी वनेपुते मृगलिजालूनशिखेषु वर्हिपाम् ।। ४ ।।
अ०-अनारतं मणिपीठशायिनी या (ते चरणी ) (पुरा) राजशिरःस्रजां रजः अरस्जयत् तो ते चरणी मृगद्विजाल्नशिखपु वहिपां यनेषु निपीदतः।
२०-अनारतं = निरन्तर । मणिपीठशायिनी - मणिमय (ग्नजटित) पादपीट पर अवस्थित (स्थित, विद्यमान) रहने वाले । यो (ते चरणी)= (आप के) जिन (चरणों) को। राजशिरःजां= गजाओं के सिर पर स्थित पुप्प-मालाओं का । रजः पगग | अरब्जयन् = रंग देता था (अलंकृत फरता था)। तो ते चरणी = वही तुम्हारे (आप के) चरण । मृगद्विजालूनशिखेपु = हरिणों (मृगों) और बाधाणों (ऋपियों, तपस्विजनों) के द्वारा तोड़ लिए गए हैं अग्रभाग (शिग्वाय) जिनकी, हरिणों और बामणों के द्वारा तोड़े गये अग्रभाग वाले । वर्हिपां बनपु= कुशाओं (कुगों, दौं) के वनों (अरण्यों, जङ्गलों) में, कुश-काननों में, कुश-समूहों में । निपीदतः = पड़ते हैं, स्थित रहते हैं, भटकते रहते हैं।
अनु०-निरन्तर मणिमय (रत्ननटित) पाद-पीठ पर विद्यमान रहने वाले (आप के) जिन (चरणों) को (प्रणाम करने के लिए आने वाले सामन्त) राजाओं के सिर पर स्थित पुप्प-मालाओं का पराग रंग देता था, यही आप के चरण (अब) उन कुश-कानों (कुश-धनी, कुशसमूहों) में रखे जाते हैं