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बाणभट्ट सुबन्धुके अनन्तर बाणभट्टका प्रसङ्ग आता है। अन्य कवियोंके समान इनका समय और चरित्र तिरोहित नहीं है। बाण भट्ट कान्यकुब्जाऽधिपति शिलादित्य हर्षवर्द्धनके समाकवि थे। हर्षवर्द्धनका समय खुष्ट ६०६ से ६४७ तक माना जाता है, बाणभट्टका भी वही समय है। बाणभट्टकी रचनाएँहर्षचरित ( आख्यायिका), कादम्बरी ( कथा ), पार्वतीपरिणय (नाटक) और मुकुटताडितक ( नाटक ) मानी जाती हैं। हर्षचरितके प्रथम उच्छ्वासके कथनके अनुसार बाणभट्टके वंशके मूलपुरुष वत्स नामके विद्वान् ब्राह्मण थे। विन्ध्यप्रदेशके हिरण्यवाह ( शोण ) नामक महानदके तीरस्थित प्रीतिकूट नामके ग्राममें उनका निवास था । बाणभट्ट वात्स्यायन गोत्रमें उत्पन्न कुबेरके प्रपौत्र थे। ये कुबेर गुप्त उपपदवाले राजाओंसे पूजित थे। वे अर्थपतिके पौत्र और चित्रमानुके पुत्र थे। उनकी माता राजदेवी नामकी थी "मत्सु" नामके विद्वान् उनके गुरु थे, और पुत्र भूषणमट्ट नामके थे। चन्द्रसेन और मातृषेण उनके असवर्ण भाई थे। भाषाकवि ईशान बाणभट्टके परम मित्र थे। उनके शैशवकालमें ही माताका स्वर्गवास हुआ, और उनकी चौदह वर्षकी उम्रमें पिताजीका परलोकवास हुआ। अनन्तर वेदशास्त्रके विद्वान् बाणभट्टने बाल-सुलम चपलतासे देशान्तर देखनेकी इच्छासे पितृपितामहोंसे उपार्जित वैभवको भूलकर विद्याव्यासङ्गकी परवाह न कर मित्रोंके साथ घरसे निकल कर पर्यटन करते हुए अनेक राजकुलोंकी सेवा कर बहुत समय बिताया। पीछे वे फिर अपनी जन्मभूमिमें लौटे। तब विवाह कर गृहस्थाश्रममें उन्होंने प्रवेश किया। बाणभट्टकी प्रसिद्धि सुनकर श्रीहर्षके सहोदर श्रीकृष्णने उन्हें बुलाया। तब उन्होंने कान्यकुब्जमें जाकर श्रीहर्षके समाभवनमें महाकविपद प्राप्त किया। बाणभट्टने श्रीहर्षके चरित्रका आलम्बन कर आठ उच्छ्वासोंवाली हर्षचरित नामक आख्यायिकाकी रचना की। उसमें प्रथम उच्छवासमें स्थित महाकविके वंशवर्णनके अनुसार कुछ विषयोंका यहां गुम्फन किया गया है।
हर्षचरितमें हर्षवर्द्धनके पिता राज्यवर्द्धनकी मृत्यु, हर्षके ज्येष्ठभ्राता प्रभाकरवर्द्धनकी हत्या, उनकी भगिनी राज्यश्रीके पति ग्रहवर्माकी हत्या और गौडराजके विरुद्ध अभियान और राज्यश्रीका उद्धार आदि अनेक घटनाओंका वर्णन है। हर्षचरित ऐतिहासिक तत्त्वको निरूपण करनेके उद्देश्यसे रचित नहीं, हर्षवर्द्धनके जीवनको कतिपय घटनाओंका अवलम्बन कर रचा गया है। इसमें आलङ्कारिक रूपसे वर्णन-बाहुल्य ही कविका अभीष्ट है। श्लेष आदि अलङ्कारोंका प्रदर्शन, समासबाहुल्य और गौडी रीतिका अवलम्बन कविका उद्दिष्ट विषय है। श्रीहर्षकी प्रथम रचना होनेसे यह कादम्बरीकी तरह मनोरम नहीं है, परन्तु दशकुमारचरित और वासवदत्ताकी अपेक्षा इसकी रचना आकर्षक है, क्लिष्ट पदोंकी अधिकता होनेपर भी यह वासवदत्ताकी सदृश दुरूह नहीं है। इसका विशेषतः प्रथम उच्छ्वास तो अतिशय मनोहर है। यह ग्रन्थ भी अपूर्ण ही प्रतीत होता है । यह ग्रन्थ पहलेके कवियोंका समय दिखलानेके लिए अतिशय उपयोगी है। इसके आरम्भिक श्लोकोंमें निम्नस्थ कवियोंकी और ग्रन्थोंकी चर्चा है-वासवदत्ता, भट्टार हरिचन्द्र, सातवाहन, प्रवरसेन, मास, कालि. दास, बृहत्कथा और आढ्यराज । बाणभट्टने आत्मकथामें अपने सहवासमें रहे हुए निम्नसे निम्न व्यक्तियोंका भी उल्लेख किया है अतः ये अतिशय सहृदय प्रतीत होते हैं। कादम्बरी बाणभट्टकी दूसरी और मुख्यरचना है। यह गद्यकाव्यमें कथाके रूपमें परिगणित है। अतिशय खेदसे कहना पड़ता है कि यह भी हर्षचरितकी ही सदृश अपूर्ण है। कहा जाता है कि बाणके चार पुत्र थे, वयाकरण, साहित्यिक, ज्यौतिषी और वैद्य । जब उनका अन्तकाल निकटवर्ती प्रतीत हुआ तब उन्होंने "मेरे ग्रन्थका अवशिष्ट भाग कौन पूर्ण करेगा ?" ऐसा पूछा। तब ज्यौतिषी और वैद्य तो चुप रहे । बाणभट्टने निकटस्थित वृक्षको दिखाकर पूछा-"यह क्या है"। तब वैयाकरण पुत्रने उत्तर दिया