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इसी तरह बाणभट्टने हर्षचरित आख्यायिकामें
"कवीनामगलद्दो नूनं वासवदत्तया ।
शक्त्येव पाण्डुपुत्राणां गतया कर्णगोचरम् ॥" ११॥ इस पद्यमें जो "वासवदत्ता" का उल्लेख किया है, उसका तात्पर्य सुबन्धु-कृत वासवदत्ता नामकी कथामें है यह बहुतसे विद्वानोंका अभिमत है। इस प्रकार बाणभट्टने अपने दो गद्यकाव्योंमें अर्थात् कादम्बरी कथामें और हर्षचरित आख्यायिकामें जो 'वासवदत्ताका उल्लेख किया है वह सुबन्धुकृत वासवदत्ता ही है इसमें सन्देह नहीं । बाणभट्ट सप्तम शताब्दीके मध्यमागमें थे ऐसा माना जाता है।
सुबन्धुकी वासवदत्ता नामकी एक ही आख्यायिका वा कथा उपलब्ध है। उन्होंने उसे स्वयम् ही
"प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रपञ्चविन्यासर्वदग्ध्यनिधिप्रबन्धम् ।
सरस्वतीदत्तवरप्रसादश्चक्रे सुबन्धुः सुजनकबन्धुः ॥" ऐसा लिखकर "प्रत्यक्षरश्लेषमय" बताया है। वास्तवमें यह कथन यथार्थ है। श्लेषमें उनका मुकाबला कोई भी कवि नहीं कर सकता है। उन्होंने वासवदत्तामें एक स्थानमें "न्यायस्थितिमिवोद्योतकरस्वरूपाम्" और दूसरे स्थानपर "बौद्धसङ्गतिमिवाऽलङ्कारभूषिताम्" ऐसा लिखा है। न्यायवार्तिककार न्यायाचार्य उद्योतकर मुनि और बौद्धसङ्गत्यलङ्कारकार धर्मकीर्ति खुष्टकी छठी शताब्दीमें हुए थे ऐसी ऐतिहासिक विद्वानोंकी सम्मति है। इसी तरह सुबन्धुने दण्डीकी छन्दोविचितिका भी उल्लेख किया है। फलत: सुबन्धुको छठी शताब्दीके अन्त्यमाग और सातवीं शताब्दीके प्रारम्भ मागमें रखा जा सकता है। वासवदत्ताका कथानक "बृहत्कथा" से लिया गया है। सुबन्धुने उसे आलङ्कारिक ढङ्गसे सजाकर परिष्कृत स्वरूपसे प्रकाशित किया है। इसकी कथा इस प्रकारसे है-- राजपुत्र कन्दर्पकेतु स्वप्नमें एक लावण्यमयो राजकुमारीको देखता है। वह उसका अन्वेषण करनेके लिए अपने मित्र मकरन्दके साथ बाहर जाता है। उसी तरह पाटलीपुत्रकी राजकुमारी वासवदत्ता मी स्वप्नमें एक राजपुत्रको देखती है, और उसका अन्वेषण करनेके लिए अपनी दूतीको बाहर भेजती है। कन्दर्पकेतु विन्ध्यपर्वतके वनमें एक पक्षिदम्पतिको बातचीतमें इस घटनाको सुन लेता है। अनन्तर कन्दर्प केतु और वासवदत्ताका साक्षात्कार होता है, परन्तु पाटलीपुत्रराज वासवदत्ताका विवाह दूसरेसे कराना चाहता है, इस बातको जानकर वे दोनों भाग जाते हैं । वासवदत्ताके पिताकी सेना उन दोनोंका पीछा करती है। वे दोनों एक निषिद्ध उपवनमें पहुंचते हैं। वहाँपर वासवदत्ता पाषाणके रूपमें परिणत हो जाती है। तब कन्दर्पकेतु आत्महत्या करनेपर तत्पर होता है, "तुम्हारी अपनी प्रियासे संमेलन होगा आत्महत्या मत करो" ऐसी आकाशवाणी सुननेपर कन्दर्पकेतुने दुःखके साथ प्रतीक्षा की। एक दिन कन्दर्पकेतुने संयोगवश उस पत्थरका स्पर्श किया वासवदत्ता अपने पूर्व शरीरमें लौट आई उन दोनोंका समागम हुआ और आनन्दपूर्वक समय बीतने लगा। इतनी छोटी कथाके आधारपर सुबन्धुने अपनी कल्पनाका विस्तार किया, श्लेषके रूपमें अनेक शास्त्रीय-पदार्थोका प्रदर्शन कर अपनी संस्कृतभाषामें असाधारण शक्ति दिखलाई है। उनके वाक्य भी छोटे-छोटे हैं, पर कविके प्रत्यक्षर श्लेषप्रदर्शन करनेकी धुनमें तत्पर होनेसे रचना अत्यन्त दुरूह हो गई है। तथाऽपि यह रचना सरस मनोहर वर्णनसे परिपूर्ण और विद्वानोंका मनोरञ्जन करनेवाली है इसमें सन्देह नहीं। सुबन्धु काश्मीरके वा उज्जयिनीके रहनेवाले हैं इसमें मतभेद है। ये कवि वैदिक आचारसम्पन्न थे । इस काव्यकी श्रीकृष्णसूरि, जगद्धर, त्रिविक्रम, तिम्मय्यसूरि और शिवराम आदि विद्वानोंने टीका की है । कुछ अंशमें बाणभट्टने इसकी शैलीका अनुहरण किया है, यह अनुमान होता है।