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हूँ, निर्विकार हूँ" इस प्रकार के विकल्पो से उत्पन्न नहीं होता वरन् आत्मा- वस्तु के प्रत्यक्ष स्वाद से उत्पन्न होता है। उसकी महिमा ही कुछ और है। कल्पना करके भी अगर देखा जाए कि किसी समय यदि हम ऐसे ही शून्य से बैठ जाये, और कोई भी विकल्प न करें, तो भी कितनी शान्ति मिलती है, जबकि उस समय अबुद्धि व बुद्धिपूर्वक लाखों विकल्प खड़े रहते है तब जिस समय कोई बुद्धिपूर्वक विकल्प न रहें उस समय कितनी शान्ति मिलती होगी, वह वर्णनातीत हैं।
वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावै विश्राम। रस स्वादत सुख उपजै, अनुभौ याकौ नाम।। अनुभौ चिन्तामणि रतन, अनुभौ है रस कूप। अनुभौ मारग मोख को, अनुभौ मोरव स्वरूप।।
अत: सार यही है कि एक ही बीमारी है- रागद्वेष और एक ही इलाज है - स्वानुभव अथवा यह कहना चाहिए :
संसारी जीवात्मा-कषाय = परमात्मा। कषाय जितनी उतना परमात्मा से दूर और जितनी कषाय का अभाव उतना परमात्मा के नजदीका कषाय का सर्वथा अभाव सो परमात्मापना।
अपने में देखों और जानों, हम कहां खड़े हैं।
बड़ है।
स्वानुभव-कृत्ति का अवतरण लेखक श्री बाबू लाल जैन कलकत्ता वालों की लेखनी से पाण्डे राजमल जी कृत समयसार . कलश की टीका ढूंढारी भाषा से हिन्दी अनुवाद हुआ जिसकी प्रस्तावना के रूप में प्रकाशन सन् 1987 में वीर सेवा मन्दिर-दिल्ली ने किया।
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