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गुणस्थान मे स्वानुभव के समय जीव के बुद्धिपूर्वक कोई विकल्प नही रहते, अत: उसकी स्वानुभूति को निर्विकल्प अनुभूति कहा। और, आप यदि उस आनन्दास्वादी से पूछे तो वह भी यही कहेगा कि 'सच मे ही मेरी उस समय निर्विकल्प अवस्था थी। कोई भी विकल्प मुझमे नहीं था। अब वह तो आत्मज्ञानी है, छदमस्थ है, और उसकी पकड़ में आने योग्य जो सारे बुद्धिपूर्वक विकल्प है, उसका उस समय अभाव हुआ ही है, अत: उसकी अपेक्षा यह कथन सत्य है। परन्तु किसी महान जानी से, केवलज्ञानी से उसी समय यदि आप पूछे तो वे कहेगे- अभी निर्विकल्पता कहां? अभी तो अनंतो अबुद्धिपूर्वक विकल्प इसके. पडे है। कषाय की तीन चौकड़ियाँ शेष है, केवल अनन्तानुबंधी ही तो गई है हम तो आठवे गुणस्थान मे जब यह जीव श्रेणी मांडकर शुक्ल ध्यान प्रारम्भ करेगा और भीतर में इसकी लीनता बढेगी तब इसे निर्विकल्प समाधि-स्थित कहेगें। इस प्रकार से इन कथनों को यदि हम समझो तो बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है।
उदाहरण के रूप में, मान लीजिए कि हम एक निश्चित स्थान पर खड़े हए दर क्षितिज की और जाते हुए एक व्यक्ति को देख रहे है। एक समय आयेगा कि वह धुंधला होते हमे दिखाई देना बन्द हो जाएगा। तब हम यही तो कहेंगे कि वह व्यक्ति अब नही रहा। परन्तु यह कथन हमारे ज्ञान की अपेक्षा ही सत्य है। वास्तव मे यदि दूर क्षितिज पर उस व्यक्ति का सद्भाव-कहीं अवश्य है। और, कोई अन्य व्यक्ति जिसकी दृष्टि हमसे ज्यादा तीक्ष्ण है, उसे उस समय भी देखकर यही कहेगा कि चला तो जा रहा है वह, निषेध कैसे कर रहे हो तुम उसका? इस प्रकार विभिन्न कथन विभिन्न व्यक्तियो की अपेक्षा सत्य हो सकते है। अत: चतुर्थ गुणस्थान मे निर्विकल्प स्वानुभव का सर्वथा निषेध करना मोक्षमार्ग का ही निषेध करना है। चौथे गुणस्थान मे स्वानुभूति होती है और अतीन्द्रिय आनंद का प्रत्यक्ष वेदन होता है। वह आनन्द “मै शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निरंजन
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