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चैतन्य-चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने, पश्चात परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है, वहाँ अनेक निजस्वरूप में अहंबुद्धि धारता है। · चिदानन्द हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होने पर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो आता है, तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छुट जाय, केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे, वहाँ सर्व परिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं, दर्शन-जानादिक का व नय-प्रमाणदिक का भी विचार विलय हो जाता है। .
चैतन्यस्वरूप जो सविकल्प से निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य- व्यापकरूप होकर इस प्रकार प्रवर्त्तता है जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया। सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है। बड़े नयचक्र ग्रन्थ में ऐसा ही कहा है :
तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण। णे आराइणसमये पच्चकम्खोअणुहवो जहा। 126611
अर्थ :- तत्त्व के अवलोकन (अन्वेषण) का जो काल उसमें समय अर्थात् शुद्धात्मा, युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने। पश्चात् आराधन समय जो अनुभवकाल उसमें नय-प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव है।
.. जैसे-रत्न को खरीदने में अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहिनते हैं, तब विकल्प नहीं है- पहिनने का सुख ही है। इस प्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प अनुभव होता है।
ऐसा वर्णन समयसार की टीका आत्मख्याति में है तथा आत्मावलोकनादि में है :
तथा जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों व छठवें मन के द्वारा प्रवर्नता था, वह ज्ञान सब ओर से सिमटकर इस निर्विकल्प अनुभव में केवल स्वरूप सन्मुख हुआ।
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