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यदि. कदाचित् घट-पटाविक पदार्थों को अयथार्थ भी जाने तो वह आवरणजनित
औदयिक अज्ञानभाव है। जो क्षयोपशमरूप प्रकट ज्ञान है वह तो सर्व सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि जानने में विपरीतरूप पदार्थो को नहीं साधता। सो यह सम्यग्ज्ञान केवलज्ञान का अंश है, जैसे थोड़ा-सा मेघटल विलय होने पर कुछ प्रकाश प्रगट होता है वह सर्व प्रकाश का अंश है।
जो ज्ञान मति- श्रुतरूप हो प्रवर्तता है वही ज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञानरूप होता है, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा तो जाति एक है।
तथा इस सम्यक्त्वी के परिणाम सविकल्प तथा निर्विकल्परूप होकर दो प्रकार प्रवर्तते हैं। वहाँ जो परिणाम विषय-कषायादिरूप व पूजा, दान, शास्त्राभ्यासादिक रूप प्रवर्नता है उसे सविकल्प रूप जानना।
यहाँ प्रश्न : - शुभाशुभरूप परिणमित होते हुए सम्यक्त्व का अस्तित्व कैसे पाया जाय ?
समाधान : जैसे कोई गुमाशता सेठ के कार्य में प्रवर्तता है, उस कार्य को अपना भी कहता है, हर्ष-विषाद को भी प्राप्त करता है, उस कार्य में प्रवर्तते हुए अपनी और सेठ की जुदाई का विचार नहीं करता, परन्तु अंतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कार्य नहीं है। ऐसा कार्य करता गुमाश्ता साहूकार है। यदि यह सेठ के धन को चुराकर अपना माने तो गुमाश्ता चोर होय। उसी प्रकार कर्मोदय जनित शुभाशुभरूप कार्य को करता हुआ तद्रूप परिणमित हो, तथापि अंतरंग में ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत-संयम को भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय। सो ऐसे सविकल्प परिणाम होते हैं।
अब सविकल्प ही के द्वारा निर्विकल्प परिणाम होने का विधानकहते है:- .
वही सम्यक्त्वी कदाचित् स्वरूप ध्यान करने को उद्यमी होता है, वहाँ । प्रथम भेदविज्ञान स्वपर का करे, नोकर्म - द्रव्यकर्म रहित केवल
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