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अपने रूप दोना ही मोक्षरूप है, मोक्ष का मार्ग है, सम्यग्दर्शन है, स्वानुभूति है। "पर से हटना" अपने में आना है, "अपने में आना" पर से हटना है जोर अपने में आने पर है। परमार्थ अपने में लगना है- अपने में लगना वह धर्म है पर से हटना तो मात्र व्यवहार है।
जब तक ज्ञान मूर्छित अवस्था में है - मूर्छित अवस्था का तात्पर्य है कि जैसे मतवाला स्वयं को या अपने घर को नहीं जानता और किसी पर में अपनापन मान लेता है, वैसे ही यह भी किसी पर में, शरीर में, पुण्य- पाप के उदय में या शुभ - अशुभ भाव में अपनापना, अहंपना मान लेता है कि यह मैं, ये मेरे और मैं इनका कर्ता। अशुभ क्रिया और अशुभभाव को, शुभ क्रिया व शुभभाव रूप पलटने में ही यह अपना पुरुषार्थ समझता है
और इसी को मोक्षमार्ग मान लेता है। कभी ज्ञान में जागृत होने का पुरुषार्थ किया ही नहीं, ज्ञान के जागृत होने का सम्बन्ध न तो शुभ - अशुभ भावों से है न शुभ - अशुभ क्रिया से है, और न ही क्षयोपशमक ज्ञान को अर्थात् पर्याय में ज्ञान शक्ति के उधाड़ को बढ़ाने से है।
अत: सम्यग्दर्शन के लिये शुभभावों का, शुभ क्रिया का व क्षायोपशमक ज्ञान को बढ़ाने का पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं है। ज्ञान को जाग्रत करने के लिए तो इसे भीतर में जानने वाले को पकड़ना होगा। शुभ अशुभ भावों व क्रियाओं में अपनापन न होकर उस जानने वाले में अपनापन स्वामित्वपना, कर्तापना, एकत्वपना आये तो शुभ-अशुभ भाव करने का मिथ्या अहंकार नष्ट हो और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो।
प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समय तीन क्रियायें हो रही है शरीर की शुभ या अशुभ क्रिया, परिणामों की शुभ या अशुभ क्रिया और ज्ञान की जाननेरूप क्रिया। क्योंकि जानने की क्रिया इसकी पकड़ में नहीं आ रही
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