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________________ चेतन - तत्व ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों का पिण्ड है। ज्ञान गुण इनमें मुख्य हैं क्योंकि ज्ञान स्व - पर प्रकाशक है। अत: चेतन मात्र जाता है और उसका काम जानने - देखने का है। प्रत्येक व्यक्ति में यह जानधारा चल रही है, परंतु ज्ञान स्वयं को पहचान नहीं रहा है, किसी निद्रा में मूर्छित है, और गहला होकर कर्मधारा में अपनापन मान रहा हैं। परन्तु कर्मधारा में अर्थातशुभ, अशुभ आदि विभावों और शरीर में अपनापन मानते हुए भी ज्ञान रूप चैतन्य कभी भी राग-द्वेष रूप या शरीर नहीं होता सदेव चैतन्य ही बना रहता है। जैसे घी के साथ मिट्टी मिली हुई है और उसको हमने गर्म करदिया है। मिट्टी अलग द्रव्य है और घी अलग! गर्म होते हुए भी वह घी स्वभाव में अर्थात् चिकनेपने में ही विद्यमान है। गर्मपने के अभाव में भी चिकनेपने की अर्थात् घी की उपलब्धि होती है, परन्तु चिकनेपने के अभाव में घी की उपलब्धि नहीं होती, अत: चिकनापन ही घी का सर्वस्व है। घी में गर्मी स्वयं नहीं आई अपितु अग्निजन्य है। यहाँ द्रष्टान्त में मिट्टी के स्थान पर शरीर चिकनेपने के स्थान पर चैतन्य, गर्मी के स्थान पर भावकर्म और अग्नि के स्थान पर द्रव्यकर्म हैं। मिट्टी और घी के मिश्रण के समान शरीर व चैतन्य मिलकर एक से भास रहे हैं, परन्तु हैं वे पृथक-पृथक द्रव्य, और गर्म घी के समान चैतन्य भी राग-द्वेष आदि भाव कर्मों से तप्तायगान हो रहा है, परन्तु ये सारे विकारी भाव हैं चेतना के अपने नहीं, द्रव्यकर्म - जन्य हैं, द्रव्य कर्म के उदय से आत्मा में हुए हैं, अत: पर ही हैं। . चीजें वहाँ दोनों ही हैं - ज्ञान भी और कर्म भी - और देखने वाला यह स्वयं है। इसे स्वयं ही चुनाव करना है कि मैं अपने आपको ज्ञान - रूप देखू या कर्म व उसके फल - रूपा अपने को पर रूप देखना तो संसार है, देखना - पढ़ना नहीं, सुनना नहीं, कहना नहीं- मात्र देखना। जोर देखने पर है, और अपने को अपने रूप देखना ही मोक्ष है। अपने को ((21)
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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