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सातवें से आगे के गुणस्थान
साधु जब सातवें गुणस्थान से आगे बढ़ता है, आत्म - अनुभव की गहराइयों में उतरने लगता है तो धर्मध्यान से आगे शुक्लध्यान में प्रवेश करता है; वहाँ पर, आठवें - नवें - दसवें गुणस्थानों में, धर्मध्यान की भाँति माध्यम का अवलम्बन नहीं रहता। बुद्धिपूर्वक विकल्प-विचार तो पहले ही समाप्त हो चुके हैं, केवल कुछ अबुद्धिपूर्वक विकल्प शेष रहे हैं जिनके होने से ज्ञानोपयोग में अबुद्धिपूर्वक ही ज्ञेय पदार्थों की तथा मन-वचन-काय योगप्रवृत्तियों की संक्रान्ति - परिवर्तन — होता रहता है। ये विकल्प सूक्ष्मरागजन्य हैं, जितना राग शेष है उतना विकल्प उठता है, कुछ वैसे ही जैसे कि डुबकी लगाने वाला जल में गहराई की ओर जा रहा है परन्तु अभी बुलबुले उठते दिखाई दे रहे हैं। यहाँ कोई संसार-शरीर-भोगों का राग नहीं है। बल्कि कहना चाहिए कि रागरूपी ईंधन तो लगभग सब जल चुका, केवल मुट्ठी भर राख शेष रही है, सो भी आत्मध्यान की आँधी में उड़कर समाप्तप्राय: हो रही है। राग का अभाव हो रहा है और स्वभाव में स्थिरता बढ़ती जा रही है। चेतना में स्थिरता के कारण आत्मिक आनंद भी वृद्धिंगत हो रहा है—ऐसा अतीन्द्रिय आनंद जो इन्द्रिय-ज्ञानगम्य है ही नहीं; इन्द्र वा अहमिन्द्र आदि के जिसके होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता :
" (इह भाँति ) निज में थिर भये तिन अकथ जो आनंद लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिंद्रकै नाहीं कह्यो । ।'
चेतना में बढ़ती हुई स्थिरता के फलस्वरूप कर्म - प्रकृतियों के स्थितिअनुभाग क्षीण होते जा रहे हैं। स्वभाव में गहराई बढ़ती जाती है। इस प्रकार सातवें गुणस्थान से आगे की ओर बढ़ते हुए कुछ साधक तो रागादि के पूर्व संस्कारों को, निज आत्म-परिणामों के अनुसार, दबाते हुए / उपशमन करते हुए आगे बढ़ते हैं, जबकि अन्य साधक उन संस्कारों को विनष्ट करते हुए बढ़ते हैं। पहली प्रकार के साधक दसवें गुणस्थान को पार करने पर ग्यारहवें 'उपशान्तमोह' गुणस्थान में पहुँचते हैं; वहाँ चूंकि दबाये गये पूर्व संस्कार उनको कुछ काल से अधिक नहीं ठहरने देते, अत: उन्हें वापिस निचले गुणस्थानों में लौटना पड़ता हैं। दूसरी ओर, जो साधक आत्मध्यान की आत्यंतिक गहनता द्वारा, शुक्लध्यान के पहले चरण द्वारा राग - संस्कारों को
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