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कहा है कि "वे वचन बोले बिना ही, मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे हों।" वे मुनि स्वरूपाचरण - रस से अत्यंत तृप्त होकर भी बार-बार उसी रस को चाहते हैं । यदि पूर्वकाल के संस्कारों की वासना से शुभोपयोग में लग जाते हैं तो यह समझते हैं कि हमारे ऊपर यह संकट आया है जो शुभभाव-रूपी अग्नि में प्रवेश हुआ पुनः ज्ञानानन्द - रस की प्राप्ति की चेष्टा करते हैं; अब भगवान का अवलम्बन भी नहीं रहा, निज स्वभाव का ही अवलम्बन लेते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भगवान का अवलम्बन भी परावलम्बन है जिससे पुण्य की अग्नि में सिकना पड़ेगा जबकि आत्म - अवलम्बन से कर्मों का नाश होगा। इस प्रकार के गहन आत्मध्यानरूपी पुरुषार्थ द्वारा, पुनः पुनः आत्मध्यान में लीनता के द्वारा, जब संज्वलन कषाय मंद पड़ने लगती है तो साधु आत्मानुभवन में लगने पर पुनः विकल्पों में वापिस नहीं आता, बल्कि आत्म-स्वभाव के अनुभव की गहराइयों में उतरता जाता है। उस समय सातवें गुणस्थान से आगे की ओर उन्नति होती है- आठवाँ आदि गुणस्थान होते हैं । ध्यान की उस गहनता का वर्णन करते हुए ही कवि ने कहा है- "तिन सुथिर मुद्रा देखि मृग गनि उपल खाज खुजावते।” अर्थात् उनकी ऐसी ध्यान-मग्न सुस्थिर मुद्रा होती है कि हरिणों को उनके पाषाण होने का भ्रम हो जाता है और वे उनके शरीर से खाज खुजलाने लगते हैं ।
है।
सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है, उसके चार भेद निरूपित किये गये हैं- पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । ये भेद इस बात के सूचक हैं कि साधक ने स्वभाव - सलिल में किस घाट से डुबकी लगाई; उन घाटों के ही ये चार प्रकार हैं। किसी घाट पर जल का स्तर छिछला है, डुबकी लगाने के लिए दूर तक जाना पड़ता है। कोई घाट ऐसा है कि उससे उतरते ही डुबकी लग जाती है। यहाँ डुबकी की समयावधि तो बहुत कम है, जबकि घाट में उतरने में ज्यादा समय लग जाता है। वहाँ पहले संसारशरीर-भोगों से उपयोग हटाने के लिए भेद-विज्ञान की भावना की जाती है, तथा साधक शरीर के स्वरूप के माध्यम से णमोकार मन्त्र के माध्यम से, अथवा अरहंत-सिद्ध के स्वरूप के माध्यम द्वारा बाहर से उपयोग हटा कर निज स्वभाव में लगाता है। यहाँ माध्यम के अवलम्बन में समय ज्यादा लग जाता है, स्वभाव में कम समय लगता 1
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