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________________ दो शब्द बहुत वर्षों से यह कमी अनुभव में आ रही थी कि कोई एक छोटा-सा ट्रफ्ट हा जो आज की भाषा में हो, सरल हो जिससे सभी लोक सम्प्रदायों से ऊपर उठकर धर्म के मर्म को सरलता से बिना पक्षपात के जान सके। इसकी पूर्ति के लिये यह टफ्ट लिखा गया था। सबसे पहले आत्मज्ञान होना जरूरी है आत्मज्ञान बिना रागद्वेष का अभाव नहीं हो सकता और रागद्वेष के अभाव के बिना यह आत्मा विकारों से रहित शुद्ध नहीं हो सकता। इसलिये इस ट्रफ्ट में आत्मज्ञान का उपाय और उससे रागद्वेष का क्रम से अभाव द्वारा मानव बनना और मानव से महामानव परमात्मा बनने का उपाय सरल ढंग से बताया है। सम्प्रदाय और धर्म में अन्तर है। जिसका कोई नाम दे दिया जाता है वह सम्प्रदाय हो जाता है। जिसका सम्बन्ध मात्र किसी समाज के थोथे निष्प्राण रीति-रिवाज पूरे करने तक ही सीमित है। मिथ्या अंधविश्वास, रूढ़ि परम्परा का शिकार होकर किसी लकीर का फकीर बनाना सम्प्रदाय का काम है। धर्म का पालन तो अपने जीवन को स्वस्थ मंगलमय बनाने के लिये है जो आत्म कल्याण और पर कल्याण का कारण है। धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है जबकि सम्प्रदाय का सम्बन्ध बाहर से है। धर्म का स्वरूप हमेशा एक रहता है वह किसी देश काल अथवा व्यक्ति विशेष की वजह से बलाता नहीं है। धर्म अपने आपमें असिम है, प्राणि मात्र का है सबके लिये कल्याणकारी है। उसी धर्म का वर्णन इस ट्रफ्ट में किया गया है। मैं आशा करता हूं कि पाठक इसको इसी दृष्टि से पढ़ेंगे। श्री चन्द्रसेन जी ने ३४०० प्रति छपवाई थीं वह हाथो-हाथ निकल गई और लोगों की मांग बनी रही। अत: दुबारा दरियागंज शास्त्र सभा द्वारा छपवाई गयी हैं। इस संस्करण में पहले जो कहीं विषय के खुलाशा होने में कमी मालूम दी थी उसको ज्यादा खोलने की चेष्टा की गयी है। श्री अनिल कुमार साहारनपुर वालों ने प्रफ संशोधन का कार्य और बहुत लगन से इसका सम्पादन किया है। इसके लिये उनका बहुत आभार है। -बाबूलाल जैन
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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