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में उन-रूप होने का उमंग-उत्साह पैदा कर सकते हैं, यह पुरुषार्थ तो हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। भगवान् महावीर ने स्वयं को शुद्ध करके जीव मात्र को सम्बोधित करते हुए कहा कि हे जीवों, तुम भी मेरी भाँति स्वयं को शुद्धात्मा बना सकते हो।
जीव का कर्म व शरीर से सम्बन्ध, और पुनर्जन्म यद्यपि यह जीव ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला है, तथापि अशुद्ध अवस्था में इसके साथ कर्मों का संबंध है। उस कर्म-सम्बन्ध की वजह से इसको बहिरंग में तो शरीर की प्राप्ति है और अंतरंग में राग-द्वेष रूप विकारी भावों की प्राप्ति है। यह स्वयं को न जानकर-मैं कौन हूँ, मेरा क्या स्वरूप है, इत्यादि की जानकारी से बेखबर–इन शरीर-मन-वचन को ही आत्मा मान रहा है, क्रोधादि भावों को ही अपने स्वभाव मान रहा है। जिस शरीर को प्राप्त करता है, उसी शरीर-रूप अपने को मान लेता है। शरीर की उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति, शरीर के नाश से अपना नाश, शरीर में रोग होने से स्वयं को रोगी,
और शरीर के स्वस्थ होने से स्वयं को स्वस्थ मानता है, जबकि वस्तुस्वरूप इसके विपरीत है-जीवात्मा का अस्तित्व अलग है, शरीर का अस्तित्व अलग; शरीर का नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता।
जीवात्मा का पुनर्जन्म है। प्रत्येक आत्मा जिस-जिस प्रकार के परिणाम या भाव करता है, उन्हीं के अनुसार अच्छी-बुरी गति को प्राप्त होता है। जिन जीवों के परिणाम सरल हैं, माया और पाखण्ड से रहित हैं, वे देवगति को प्राप्त करते हैं। जिनके मायायुक्त परिणाम हैं-कहते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं-वे पशु-पक्षी आदि हो जाते हैं। जो अल्प-आरंभी और अपेक्षाकृत संतोषी जीव हैं, वे मनुष्य होते हैं। और, जिनके बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह की लालसा होती है, वे नारकी होते हैं। गति के समान ही वातावरण आदि की प्राप्ति भी जीव को पूर्वकृत परिणामों के अनुसार ही होती है। कोई धनिक परिवार में पैदा होता है तो कोई गरीब के घर। कोई गरीब के घर पैदा होकर भी धनिक परिवार में चला जाता है। किसी को किंचित् परिश्रम मात्र से सब साधन-सामग्री सुलभ हो जाती है और किसी को बहुत चेष्टा करने पर भी प्राप्त नहीं होती। इन सब बातों से कर्म की विचित्रता
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