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वस्तु-तत्त्व का निर्णय
आत्म-विज्ञान यदि नकारात्मक ढंग से कहें तो राग-द्वेष का अभाव, और सकारात्मक ढंग से कहें तो परम सुख अर्थात आत्मिक सुख की उपलब्धि, यही साक्षात धर्म है। साधन की दृष्टि से राग-द्वेष के अभाव के उपाय को, विज्ञान को भी धर्म कहा जाता है। भगवान् महावीर ने निजमें राग-द्वेष का समूल नाश करके परम सुख को प्राप्त किया और इस आत्म-विज्ञान को संसार के समस्त जीवों के हितार्थ बतलाया। संसारी जीव अशुद्ध है और राग-द्वेष ही उसकी अशुद्धता है। वह कब से अशुद्ध है ? यदि पहले शुद्ध था तो अशुद्ध क्यों और कैसे हुआ ? इन प्रश्नों का समाधान है कि जैसे खान से निकाला गया सोना कीट-कालिमा से मिला हुआ ही निकलता है, पहले कभी शुद्ध रहा हो और फिर अशुद्ध हो गया हो, ऐसा नहीं है, बल्कि ऐसा है कि वह सदा से अशुद्ध था, शुद्ध होने की योग्यता भी उसमें सदा से छिपी थी, और अब धातु-विज्ञान की एक विशिष्ट विधि द्वारा शुद्ध किया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार की स्थिति संसारी जीव की भी है। वह भी अनादिकाल से अशुद्ध है, और शुद्ध होने की योग्यता भी उसमें सदा से अन्तर्हित है। इसके शुद्धिकरण के लिए भी एक विशिष्ट उपाय है, उसे ही ऊपर आत्म-विज्ञान कहा गया है। परन्तु, दृष्टान्त और दार्टान्त में जहाँ इतनी समानता है, वहीं इनमें एक गम्भीर अन्तर भी है क्योंकि दृष्टान्त सदा आंशिक रूप से ही दार्टान्त में घटित हुआ करता है, पूर्ण रूप से नहीं। उस अन्तर को समझ लेना भी आवश्यक है। खनिज स्वर्ण तो एक जड़ पदार्थ है, उसको शुद्ध करने के लिए तो कोई दूसरा, कोई धातुकर्मी चाहिए। परन्तु जीव तो चेतन है, स्वयं सामर्थ्यवान है; अपनी अशुद्धता का सही कारण समझकर और उसके अभाव का सही उपाय करते हुए इसे तो स्वयं ही अपने को शुद्ध करना है। न तो इसको शुद्ध करने का दायित्व किसी दूसरे का है और न ही किसी दूसरे में इसको शुद्ध करने की सामर्थ्य है। जो आत्माएँ अशुद्धता के रोग से स्वयं को मुक्त कर सकीं वे हमें उस मार्ग की, उस विज्ञानकी केवल जानकारी दे सकती हैं; और उनको देख कर हम स्वयं