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________________ नमः सिद्धेभ्यः पंचास्तिकायः मंगलाचरण इंदसदवंदियाणं, तिहुअणहिदमधुरविशदवक्काणं। अंतातीदगुणाणं, णमो जिणाणं जिदभवाणं ।। सौ इंद्र जिनकी वंदना करते हैं, जिनके वचन तीन लोकके जीवोंका हित करनेवाले मधुर एवं विशद हैं, जो अनंत गुणोंके धारक हैं और जिन्होंने चतुर्गतिरूप संसारको जीत लिया है, मैं उन जिनेंद्रदेवको नमस्कार करता हूँ।।१।। ग्रंथ करनेकी प्रतिज्ञा समणमुहुग्गदमटुं, चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं। एसो पणमिय सिरसा, समयमिमं सुणह वोच्छामि।।२।। जो सर्वज्ञ-वीतराग देवके प्रकट हुआ है, चारों गतियोंका निवारण करनेवाला है और निर्वाणका कारण है, उस जीवादि पदार्थ समूहको अथवा अर्थ समयसारको शिरसे नमस्कार कर मैं इस पंचास्तिकायरूप समयसारको कहूँगा। हे भव्यजन! उसे तुम सुनो।।२।। लोक और अलोकका स्वरूप समवाओ पंचण्हं, समउत्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं। सो चेव हवदि लोओ, तत्तो अमिओ अलोओ खं।।३।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँचोंका समुदाय है ऐसा श्रीजिनेंद्रदेवने कहा है। उक्त पाँचका समुदाय ही लोक है और उसके आगे अपरिमित आकाश अलोक है।।३।। अस्तिकायोंकी गणना जीवा पुग्गलकाया, धम्माधम्मा तहेव आयासं। अत्थित्तम्हि य णियदा, अणण्णमइया अणुमहंता।।४।। १. अणवोऽत्र प्रदेशा मूर्तामूर्ताश्च निविभागांशास्त्रैर्महान्तोऽणुमहान्तः प्रदेशप्रचयात्मका इति सिद्धं तेषां कायत्वम्। अणुभ्यां महान्त इति व्युत्पत्त्या व्यणुकपुद्गलस्कन्धानामपि तथाविधत्वम्। अणवश्च महान्तश्च व्यक्तिशक्तिरूपाभ्यामिति परमाणूनामेकप्रदेशात्मकत्वेऽपि तत्सिद्धिः।। -- त. प्र. वृ. ।
SR No.009558
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages39
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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