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कुन्दकुन्द-भारती अनंत जीव, अनंत पुद्गल, एक धर्म, एक अधर्म और एक आकाश ये पाँचों अपने सामान्य विशेष अस्तित्वमें सदा नियत हैं, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उस अस्तित्वगुणसे अभिन्नरूप हैं तथा बहुप्रदेशी हैं। [अतः इन्हें अस्तिकाय कहते हैं।] ।।४।।
अस्तिकायका स्वरूप जेसिं अत्थिसहावो, गुणेहिं सह पज्जएहिं विविहेहिं।
ते होंति अत्थिकाया, णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं ।।५।। जिनका स्वभाव अनेक गुण और अनेक पर्यायोंके साथ सुनिश्चित है वे अस्तिकाय कहलाते हैं। यह त्रैलोक्य उन्हीं अस्तिकायोंसे बना हुआ है।।५।।।
द्रव्योंकी गणना ते चेव अत्थिकाया, तेकालियभावपरिणदा णिच्चा।
गच्छंति दवियभावं, परियट्टणलिंगसंजुत्ता।।६।। ऊपर कहे हुए जीवादि पाँच अस्तिकाय परिवर्तनलिंग अर्थात् कालके साथ मिलकर द्रव्य व्यवहारको प्राप्त हो जाते हैं -- द्रव्य कहलाने लगते हैं। ये सभी पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा त्रिकालवर्ती पर्यायोंमें परिणमन करनेके कारण अनित्य हैं -- उत्पाद-व्ययरूप हैं और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा स्वरूपमें विश्रांत होनेके कारण नित्य हैं -- ध्रौव्यरूप हैं।।६।।
___ एकक्षेत्रावगाहरूप होकर भी द्रव्य अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं अण्णोण्णं पविसंता, दिता ओगासमण्णमण्णस्स।
मेलंता वि य णिच्चं, सगं सभावं ण विजहंति।।७।। उक्त छहों द्रव्य यद्यपि परस्पर एक-दूसरेमें प्रवेश कर रहे हैं, एक दूसरेको अवकाश दे रहे हैं, और निरंतर एक दूसरेसे मिल रहे हैं, तथापि अपना स्वभाव नहीं छोड़ते।।७।।
सत्ताका स्वरूप सत्ता सव्वपयत्था, सविस्सरूवा अणंतपज्जाया।
भंगुप्पादधुवत्ता, सप्पडिवक्खा हवदि एक्का।।८।। सत्ता संपूर्ण पदार्थों में स्थित है, अनेकरूप है, अनंत पर्यायोंसे सहित है, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है, एक है तथा प्रतिपक्षी धर्मोंसे युक्त है।।८।।
१. 'परिवर्तनमेव जीवपुद्गलादिपरिणमनमेवाग्नेधूमवत् कार्यभूतं लिङ्गं चिह्न गमकं ज्ञापकं सूचनं यस्य स भवति परिवर्तनलिङ्गः कालाणुर्द्रव्यकालस्तेन संयुक्ताः। -- ता. वृ.।