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पदार्थ विज्ञान ही वह असख्यात प्रदेशी मिलेगा। जिस प्रकार कि कपडेकी तह करके चाहे उसे छोटा थान बना दो चाहे बडा थान, वह कपडा ४० गज़ ही रहेगा।
साधारणत. 'जीव' लोकमे व्यापकर नही रहता, किसी-न-किसी शरीरमे ही रहता है। ऐसा भी नही होता कि शरीर-जितना भाग तो शरीरमे रह जाये और शेष भाग बिना टूटे ही बाहर आकाशमे फैला रहे । वह तो सारा-का-सारा ही उस शरीरमे समा जाता है। लोक-परिमाण कहनेका इतना ही तात्पर्य है कि यदि कदाचित् वह स्वयं पूराका पूरा फैल जाये अथवा यदि कल्पना द्वारा उसे पूरा-का पूरा फेला दें तो वह इस सारे लोकमे ही व्याप सकता है, इससे बाहर इसका एक प्रदेश भी नही जा सकता। १२. शरीर-परिमाण जीवको सिद्धि ___ अन्य दर्शनकार जोवको शरीर-परिमाण न मानकर उसे अणुमात्र या अंगुष्ठ परिमाण मानते हैं। उनका कहना है कि वह स्वयं एक परमाणु मात्र है, परन्तु उसका प्रकाश इस पूरे शरीरमे है । परन्तु ऐसी मान्यता युक्त नही जंचती क्योकि ऐसा माननेसे अनेको दोष प्रतीत होते है।
किसी बड़े शरीरमे जब एक अणुमात्र जीव रहेगा तब वह शरीर भी अणुमात्र भागमे तो चेतन रहेगा और शेष भागमे जड़, अर्थात् वह केवल उतने भाग मात्रसे ही जान-देख सकेगा जितने भागमे कि जीव है, परन्तु ऐसा तो दिखाई नही देता । जीव का सारा शरीर ही छूकर जाननेकी शक्तिसे युक्त है। अत. कहना पड़ता है कि सारे शरीरमे व्याप कर ही वह रहता है ।
इस शंकाका समाधान वे इस प्रकार करते हैं कि जीव तो अणुमात्र है और शरीर के अणुमात्र भाग मे ही रहता है परन्तु उसका