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४ जीव पदार्थ सामान्य
कि यह तो मेरा मित्र ही चला आ रहा है, कोई शत्रु नही है, उसे बुद्धि कहते हैं । अर्थात् पदार्थको जानना, पहचानना तथा उसमे हिताहित विवेक करना बुद्धि है । बाहरमे तो इन्द्रियो द्वारा अनेक पदार्थोंको आप जानते तथा देखते ही है, परन्तु भीतरमे भी देखा करते हैं । अपने मित्रसे दूर कही बैठे हुए, आँखें बन्द करके अपने उस मित्र साक्षात् दर्शन किया करते हैं, इस प्रकार कि मानो वह आपके अन्दर ही बैठा है । तथा इसी प्रकार अन्य पदार्थोंका भी भीतरमे आपको साक्षात् दर्शन हुआ करता है । बस जिसके द्वारा आपको अपने भीतरमे यह दर्शन होता है उसे चित्त कहते हैं। भीतरमे होनेवाला यह साक्षात्कार अथवा चिन्तन व ध्यान चित्तके धर्म है । 'यह पदार्थ मेरा है और यह तेरा है' इस प्रकार धनादिक बाह्य पदार्थोंमे अपने स्वामित्व की या किसी औरके स्वामित्वकी स्थापना करके उन्हे भिन्न-भिन्न भावसे देखना, अपने "पदार्थ से प्रेम तथा दूसरेके पदार्थसे द्वेष करना, ऐसी प्रवृत्ति सब जीवोमे पायी जाती है । अथवा " यह काम मैंने किया है, तू इसे नही कर सकता था । मैं बडा धनवान् हूँ, बलवान् हूँ, विद्वान् हूँ, रूपवान् हूँ, ऐश्वर्यवान् हूँ" इत्यादि गर्वपूर्ण अभिप्राय भी सबके अन्दर मे बैठे रहते हैं । बस अन्य पदार्थोमे स्वामित्वकी गर्वपूर्ण बुद्धिका नाम ही अह्कार है । "तुम जो बात कह रहे हो मिथ्या है, क्योकि ऐसा देखनेमे नही आता । और जो मैं कहता हूँ वह ठीक है क्योकि यह बात सब ही स्वीकार करते है ।", इस प्रकारकी विचारणाओको तर्क-वितर्क कहते हैं । "यदि यह काम [हो गया तो ठीक नही तो बहुत नुकसान होगा । मुझे यह काम इस ढंग से करना चाहिए था, परन्तु मैंने गलती की, इस प्रकार नही किया । अब क्या होगा, क्योकि युद्ध छिड गया है ।", इस प्रकारकी वह विचारधारा जो प्रतिक्षण अन्दरमे चलती रहती है उसे सकल्प-विकल्प कहते हैं । " यह पदार्थ बहुत अच्छा है, किसी
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