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पदार्थ विज्ञान
कारण धर्म व अधर्म द्रव्य साधारण विश्वासके विषय नही हैं, उसी प्रकार कालका भी कोई पृथक् कार्य देखनेमे नही आता। परन्तु जिस प्रकार युक्ति द्वारा धर्म व अधर्म द्रव्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य भी सिद्ध होता है। ३. कालका प्राकार
वैदिक दर्शनकारोंने भी यद्यपि काल नामका पदार्थ माना है 'परन्तु वे इसे कोई प्रदेशात्मक पदार्थ नहीं मानते, जवकि जैन दर्शनकारोका सिद्धान्त ही यह है कि यदि कोई सत्तात्मक पदार्थ है तो उसे प्रदेशात्मक होना ही चाहिए, अर्थात् उसे किसी न किसी आकारका होना ही चाहिए, भले ही वह आकार परमाणु-जैसा सूक्ष्म हो अथवा आकाश-जैसा महान् । जहाँ कही भी आकार होगा वहाँ लम्बाई, चौडाई, मोटाई होगी और जहाँ लम्बाई-चौडाईमोटाई होगी वहां प्रदेश कल्पना हुए बिना रह नही सकती, क्योकि आकार बडे-छोटेकी कल्पनाका आधार है। अतः यदि काल नामका कोई पदार्थ है तो उसे अवश्य ही कुछ होना चाहिए, अर्थात् उसका कोई न कोई आकार होना चाहिए।
जैन दर्शनकार इसे परमाणुके आकारका अर्थात् एक-प्रदेशी मानते हैं। एक-प्रदेशीका यह अर्थ नही कि यह पदार्थ सख्यामे भी एक ही है। इसका केवल इतना ही अर्थ समझना कि काल पदार्थ अणुरूप है, इसलिए इस पदार्थको कदाचित् कालाणु भी कहते हैं। जिस प्रकार लोकमे परमाणु अनेक है उसी प्रकार कालाणु भी अनेक हैं। अन्तर केवल इतना है कि परमाण तो अनन्तानन्त हैं, परन्तु कालाणु असख्यात मात्र हैं। इन विचित्र कालाणुओको लोकाकाशके असख्यात प्रदेशोमे-से एक-एक प्रदेशपर एक-एक करके बैठा हुमा कल्पित किया जाता है। अत. जितने लोकाकाशके प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं।