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पदार्थ विज्ञान
अवधि ये तीनो सावरण दर्शन वृद्धिके धर्म हैं। क्योंकि पदार्थ सम्बन्धी निश्चय करना वुद्धिका लक्षण है, और नमी ज्ञान तथा दर्शन भी क्रम पूर्वक अपने-अपने योग्य एक-एक पदार्यका आगे-पीछे निश्चय करानेमे समर्थ हैं। तर्क उत्पन्न हो जानेके पश्चात् उसके सम्बन्धमे जो विचारणा चला करती है वह श्रुतज्ञान है और वह चित्तका धर्म है। __ शरीर तथा वाह्य पदार्थोमे, धन-कुटुम्ब आदिम 'ये मेरे हैं तथा मझे इष्ट हैं, इन सम्बन्धी ही सुख-दुःख मेरा है, ऐमी जो प्राणीमात्रकी सामान्य लौकिक श्रद्धा है, और 'यही सुख किसी प्रकार मुझे प्राप्त करना चाहिए तथा इस दु.खसे बचना चाहिए' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक रुचि है, वे अहकारके धर्म हैं, क्योकि चेतनसे पृथक् अन्य पदार्थोकी श्रद्धा व रुचि अहंकारका लक्षण है । यहाँ इतना जानना कि चेतनको ही अपना जानना तथा मानना और उसे हित रूपसे अंगीकार करना अहंकारका नही बुद्धिका काम है, विवेकका काम है।
पदार्थके सम्बन्धमे निर्णय करनेके लिए जो विचारणा होती है वह यद्यपि वुद्धिका धर्म है परन्तु इसके सम्बन्धमें उठनेवाले अनेको तर्क-वितर्क मनके धर्म हैं, क्योकि सकल्प-विकल्प मनका लक्षण है। इन तर्क-वितर्कोके अतिरिक्त जितने कुछ भी सकल्प-विकल्पके तथा ग्रहण त्यागके राग-द्वेषात्मक द्वन्द्व और कषाय भाव हैं वे सब मनके धर्म है क्योकि यदि मन कही अन्यत्र लगा हो तो दुख-सुखका अनुभव नही होता । इस प्रकार जीवके सर्व लौकिक धर्मोमे-से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अनुभव, श्रद्धा, रुचि तथा कषायोमें-से. ज्ञान-दर्शन वुद्धिके, चिन्तनात्मक श्रुतज्ञान चित्तका, मुख-वीर्यअनुभव तथा कषाय मनके और श्रद्धा व रुचि महकारके धर्म हैं।