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________________ ६ जीवके धर्म तथा गुण १७१ अतः पूर्वमे कहे गये जीवके गुण तथा उनके सर्व भेद-प्रभेदोमे-से उपर्युक्त अलौकिक गुण निकाल लेनेपर शेष बचे सर्व लौकिक गुण अन्तःकरणके रह जाते हैं, यह बात स्पष्ट है। अत. ज्ञानके भेदोमे-से अलौकिक ज्ञान अर्थात् केवलज्ञानको छोडकर शेष जो मति, श्रुत, अवधि व मन पर्यय ज्ञान हैं वे अन्त-करणके धर्म हैं चेतन के नहीं। इसी प्रकार दर्शनमे-से अलौकिक दर्शन अर्थात् केवलदर्शन को छोड़कर शेष जो चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन हैं वे अन्तः करणके धर्म हैं । अलौकिक ज्ञानानन्द रूप सुखको छोडकर लौकिक जो विषयजनित बाह्य तथा भीतरका अर्थात् शारीरिक व मानसिक जितना भी सुख-दुख है वह अन्त करणका धर्म है चेतनका नहीं। इसी प्रकार अन्तरगमे निष्कम्प अलौकिक स्थिति रूप वीर्यको छोडकर बाहरके विषयोमे मनका दौडते रहना रूप तथा उसमे उलझउलझकर उनका स्वाद लेने रूप जितनी भी लौकिक मानसिक चचल वीर्य-वृत्ति है, वह अन्तःकरणका धर्म है, चेतनका नही। अन्तरंग अलौकिक अनुभवको छोडकर बाहरके विषयो या पदार्थों का ही स्वाद लेना अर्थात् उनसे उत्पन्न सुख-दुखका ही रस लेना लौकिक अनुभव, श्रद्धा व रुचि हैं जो अन्त.करणके धर्म हैं चेतनके नहीं । समस्त कषाय अन्तःकरणके धर्म हैं। इसी बातको यो कह लीजिए कि जितने भी निरावरण तथा स्वाभाविक गुण हैं, वे चेतनके है ओर सावरण तथा विकारी जितने भी गुण है वे अन्त करणके हैं। अन्तःकरणका भी यदि विश्लेषण करके इसे बुद्धि, चित्, अहं'कार व मन इस प्रकार चार भागोमे विभक्त कर दिया जाये तो उनके पृथक्-पृथक् धर्मोका भी निर्णय किया जा सकता है। मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय ये चारो सावरण ज्ञान तथा चक्षु, अचक्ष,
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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