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६ जीवके धर्म तथा गुण
१५९ प्रकारका है-एक बाह्य, दूसरा अन्तरंग । इन्द्रिय तथा शरीर सम्बन्धी भोगसे जो सुख होता है वह बाह्य लौकिक सुख हे और इच्छाकी पूत्ति हो जानेपर या इष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जानेपर मनमे जो हर्ष होता है वह अन्तरग लौकिक सुख है। यह सर्व ही ससारी जीवोको होता है। अलौकिक सुख एक ही प्रकारका है और वह शरीर तथा अन्तःकरणसे मुक्त अलौकिक जनोको अर्थात् मुक्त जीवोको होता है । 'ज्ञान-प्रकाशका पूर्ण-रूपेण खिल जाना तथा समस्त विश्वका एक साथ प्रत्यक्ष हो जाना रूप जो ज्ञान है वही ज्ञान उनका सुख है। इसे सुख नही बल्कि मानन्द कहते हैं । समस्त चिन्ताओका, चिन्ताओंके कारणोका तथा समस्त इच्छाओका नाश हो गया है और शान्त व शीतल प्रकाशमान स्वभावमे स्थिति हो गयी है। पहले चारो ओर इच्छाओका अन्धकार था, जीवनपर भार प्रतीत होता था, अब सर्वत्र प्रकाश है, जीवन अत्यन्त हलका प्रतीत होता है । यही वह आनन्द है।
लौकिक दु.ख भी दो प्रकारका है-बाह्य तथा अन्तरग । बाह्य दु ख तो शरीरकी पीड़ाओ तथा रागादिके रूपमे प्रकट होता है, और अन्दरका दुख चिन्ता, व्याकुलता, इच्छा, तृष्णा आदिके रूपमे होता है। अलौकिक दुख होता ही नही, क्योकि स्वय प्रकाशित तथा अन्त करणसे मुक्त जीवोंको इच्छा तथा चिन्ता आदि करनेका कोई कारण नही रहता।
२० वीर्य
वीर्य भी दो प्रकारका है-एक बाह्य और दूसरा अन्तरंग । बाह्य वीर्य शरीरकी शक्तिका नाम है जिसे दुनिया जानती है। अन्तरग वीर्य ज्ञानकी हीन अधिक शक्ति रूप, तथा उसकी स्थिरता रूप होता है। वह दो प्रकारका है-एक लौकिक और दूसरा