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________________ १५८ पदार्थ विज्ञान नही, क्योकि वे मनोमतिपूर्वक होते है । केवलज्ञानके साथ रहनेचाला दर्शन केवलदर्शन है । यहाँ इतना ध्यामे रखना चाहिए कि पहलेवाले ज्ञान क्योकि क्रमवर्ती है, आगे-पीछे अटक अटककर अपने-अपने विषयोको जानते हैं, इसलिए वहाँ दर्शन तथा ज्ञान भी आगे पीछे होते हैं । पहले दर्शन होता है और पीछे तत्सम्बन्धी ज्ञान । यह ठीक है कि आगेपीछे का यह अन्तराल एक क्षणका भी सहस्रांश है, परन्तु फिर भी होते आगे-पीछे ही हैं । परन्तु केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमे आगे-पीछे होनेका यह क्रम नही है । इसका कारण यह है कि केवलज्ञान चेतनका पूर्ण प्रकाश है, जिसमे सारा बाह्य जगत् तथा अन्तरंग जगत् एक साथ प्रतिभासित हो जाता है । वास्तवमे केवलज्ञान और केवलदर्शन दो पृथक् वस्तुएँ नही हैं, बल्कि चेतनका वह अखण्ड प्रकाश ही है, जिसका कि परिचय चेतनका स्वरूप दर्शाते हुए पहले दिया जा चुका है । परन्तु फिर भी उस प्रकाशको बताने कुछ वचन-भेद आता है । जब हमे यह कहना इष्ट होता है कि वह तो अन्तररंगका प्रकाश मात्र है तब उसीका नाम केवलदर्शन कहा जाता है, और जब हमे यह कहना इष्ट होता है कि उस प्रकाशमे समस्त विश्व प्रतिभासित हो रहा है, तब वही प्रकाश केवलज्ञान कहा जाता है । क्योकि पहले ही दर्शनकी व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि बाह्य पदार्थोंका जानना ज्ञान है और अन्तरगमे प्रकाश देखना दर्शन है । इस प्रकार चक्षु, अचक्षु तथा अवधिदर्शन तो लौकिक हैं और केवलदर्शन अलौकिक है । १९ सुखके मेद सुख गुण अन्तर्गत सुख तथा दुख दोनो आ जाते हैं । सुखके भी दो भेद हैं-लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक सुख दो
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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