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चौहत्तर
कुंदकुंद-भारती
शास्त्रीके 'कुंदकुंद प्राभृत संग्रह' और श्रीमान डॉ. ए. एन्. उपाध्येके 'प्रवचनसार' की प्रस्तावनासे यथेष्ट सामग्री ली गयी है इसलिए इन सबका मैं अत्यंत आभारी हूँ। इसका प्रकाशन १०८ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्थाकी ओरसे हो रहा है इसलिए उसके मंत्री श्री. वालचंद देवचंदजी शहा तथा अन्य अधिकारियोंका आभार मानता हूँ। श्रीमान् पं. जिनदासजी शास्त्री सोलापुरने पांडुलिपिका सूक्ष्म दृष्टिसे अवलोकन कर उक्त संस्थाको प्रकाशित करनेकी आज्ञा दी इसलिए उनका आभारी हूँ। श्री ब्रह्मचारिणी पद्मश्री सुमतिबाई शहा सोलापुरका भी आभारी हूँ जिनकी प्रेरणा से इस ग्रंथके प्रकाशनकी ओर संस्थाके मंत्री महोदयका ध्यान आकृष्ट हुआ। श्री. उदयचंद्रजी सर्वदर्शनाचार्य एम्. ए. प्राध्यापक हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी और श्री. पं. महादेवजी चतुर्वेदीने प्रूफ देखकर इसके सुंदर प्रकाशनमें जो सहयोग दिया है उसके लिए उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ। जिनवाणीके संवर्धन, संरक्षण, संशोधन और प्रकाशनमें जो भाग लेते हैं उन सबके प्रति मेरे हृदयमें अगाध श्रद्धाका भाव है।
मैं अल्पज्ञानी तो हूँ ही, साथमें मुझे अनेक कार्योंमें व्यस्त रहना पड़ता है इससे संपादन तथा अनुवादमें त्रुटि रह जाना संभव है इसके लिए मैं ज्ञानी जनोंसे क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरे द्वारा जिनवाणीके अर्थमें विपर्यास न हो इसका हृदयमें सदा भय रहता है।
सागर
दीपावली
२४९७ वीरनिर्वाण संवत्
विनीत
पन्नालाल जैन साहित्याचार्य