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________________ बहत्तर कुंदकुंद-भारती णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवेज्जा। मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदी भमिदो।।२८।। सब्वे पयडिट्ठिदिओ अणुभागप्पदेसबंधठाणाणि। जीवो मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भाव संसारे।।२९।। ये गाथाएँ पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि द्वितीयाध्यायके 'संसारिणो मुक्ताश्च' इस सूत्रमें उद्धृत की हैं और उन्हींका अनुसरण जीवकांडकी संस्कृत टीकाकी भव्यमार्गणामें किया गया है। णिच्चिदरधादु सत्त य तरुदसवियलिदिएसु छच्चेव। सुरणिरयतिरियचउरो चोद्दसमणुए सदसहस्सा।। ३५।। यह गाथा भी सर्वार्थसिद्धिमें पूज्यपादस्वामीने 'सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः' इस सूत्रकी व्याख्यामें उद्धृत की है। यही गाथा जीवकांडकी ८९ वीं गाथा बन गयी है। इगतीस सत्त चत्तारि दोण्णि एक्केक्कछक्कचदुकप्पे। तित्तियएक्केकेंदियणामा उडुआदि तेसट्ठी।।४१।। यह गाथा त्रिलोकसारकी ४६३ वी गाथा बन गयी है तथा बृहद्र्व्यसंग्रहकी लोकभावनामें 'उक्तं च' कहकर उद्धृत की गयी है। तत्त्वार्थसूत्रकारने व्रत-अणुव्रत और महाव्रतोंका शुभास्रवमें वर्णन किया है, परंतु कुंदकुंद स्वामीने ___ पंचमहव्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा। कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं ।।६२।। इस गाथा द्वारा कहा है कि अहिंसादि पाँच महाव्रतोंके परिणामसे हिंसादि पाँच प्रकारके अविरमणका निरोध नियमसे हो जाता है अर्थात् इसे संवरका कारण बतलाया है। इसी प्रकार जीवकांड और बृहद् द्रव्यसंग्रहमें भी व्रतको संवरमें परिगणित किया गया है। व्रतमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों रहती हैं। तत्त्वार्थसूत्रकारने निवृत्ति अंशको प्रधानता देकर संवरमें सम्मिलित किया है। शुभोपयोगकी प्रवृत्ति सर्वथा निःसार नहीं है, उससे अशुभोपयोगका निराकरण होता है और शुद्धोपयोगके द्वारा शुभोपयोगका विरोध होता है -- यह भाव कुंदकुंद स्वामीने निम्न गाथामें प्रकट किया है -- सुहजोगस्स पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि।।६३।। निर्जरानुप्रेक्षाकी निम्नलिखित गाथा स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी १०४ वीं गाथा बन गयी है -- सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा। चदुगदियाणं पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया।।६७।। धर्मभावनाकी निम्नांकित गाथा भी उत्तरवर्ती आचार्योंके द्वारा अपने ग्रंथोंका अंग बनायी गयी है -- दंसणवयसामाइयपोसहसच्चित्तरायभत्ते य। बम्हारंभपरिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठदेसविरदेदे।।६९।। यह गाथा वसुनन्दिश्रावकाचारमें चतुर्थ नंबरकी गाथा बन गयी है। उत्तम क्षमादि दश धर्मोके वर्णनमें कुंदकुंद स्वामीने सत्य धर्मका वर्णन पहले किया है और शौच धर्मका उसके
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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