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________________ प्रस्तावना इकहत्तर और नमक लेपसे फूँका हुआ स्वर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानरूपी जलके द्वारा जीव शुद्ध हो जाता है। यदि कोई ज्ञानसे गर्वित होकर विषयोंमें राग करता है तो यह ज्ञानका अपराध नहीं है किंतु उस मंदबुद्धि पुरुषका अपराध है। जो शीलकी रक्षा करते हैं और विषयोंसे विरक्त रहते हैं उन्हें नियमसे निर्वाणकी प्राप्ति होती है। शीलरहित मनुष्यका जन्म निरर्थक है। वारसा इसका संस्कृत नाम द्वादशानुप्रेक्षा है । ९१ गाथाओंके इस ग्रंथ में वैराग्योत्पादक द्वादश अनुप्रेक्षाओंका बहुत ही सुंदर वर्णन हुआ है। 'अनु + प्र + ईक्षणं अनुप्रेक्षा' इस व्युत्पत्तिके अनुसार पदार्थके स्वरूपको प्रकर्षताके साथ बार-बार देखना -- विचार करना अनुप्रेक्षा कहलाती है। ये अनुप्रेक्षाएँ लोकमें बारह भावनाओंके नामसे प्रचलित हैं। कुंदकुंद स्वामीने बारह अनुप्रेक्षाओंका क्रम इस प्रकार रक्खा है अद्भुवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं । आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोहिं च चिंतेज्जो ।।२।। १. अध्रुव, २. अशरण, ३. एकत्व, ४. अन्यत्व, ५. संसार, ६. लोक, ७. अशुचित्व, ८. आस्रव, ९. संवर, १०. निर्जरा, ११. धर्म और बोधि-- इन भावनाओंका निरंतर चिंतन करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने इन अनुप्रेक्षाओंके क्रममें कुछ परिवर्तन किया है -- 'अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्त्रवसंवरलोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ।' १. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ और १२. धर्म - इनके स्वरूप चिंतन करना बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं । आज आम जनता में तत्त्वार्थसूत्रकारके द्वारा निर्धारित क्रमही प्रचलित है। संभव है छंदकी परतंत्रताके कारण कुंदकुंदस्वामीको अनुप्रेक्षाओंके क्रममें परिवर्तन करनेके लिए विवश होना पड़ा हो। पर उमास्वामीके सामने गद्यरूप रचना होनेसे छंदकी कोई विवशता नहीं थी । इस ग्रंथ में अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओंके चिंतन द्वारा श्रमणके वैराग्यभावको दृढ दृढ़ किया गया है। इसकी कुछ गाथाएँ स्वयं कुंदकुंद स्वामीके अन्य ग्रंथोंमें पायी जाती हैं और कितनी ही गाथाएँ उत्तरवर्ती ग्रंथकारोंके द्वारा 'उक्तं च' कहकर उद्धृत की गयी हैं या अपने ग्रंथका अंग ही बना ली गयी हैं। जैसे दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झति । । १९।। यह गाथा दंसणपाहुडकी तीसरी गाथा है। सव्वे वि पोग्गला खलु एगे भुत्तुझिया हु जीवेण । अयं अनंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे ।। २५ । सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तं णत्थि जं च उप्पण्णं । उगाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ।। २६ ।। अवसप्पिणिउवसप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु । जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे । । २७ ।। --
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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