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सत्तर
कुंदकुंद-भारती व्रत और तपके द्वारा स्वर्ग प्राप्त कर लेना अच्छा है किंतु नरकके दुःख भोगना अच्छा नहीं हुआ, क्योंकि छाया और धूपमें बैठकर इष्ट स्थानकी प्रतीक्षा करनेवालोंमें महान अंतर है। जो व्यवहारमें सोता है वह आत्मकार्यमें जागता है और जो आत्मकार्यमें जागता है वह व्यवहारमें सोता है। जिस प्रकार स्फटिक मणि स्वभावसे शुद्ध है परंतु परद्रव्यके संयोगसे विभिन्न वर्णका हो जाता है उसी प्रकार जीव स्वभावसे शुद्ध है, परंतु परद्रव्यके संयोगसे रागादियुक्त हो जाता है। अज्ञानी जीव उग्र तपके द्वारा अनेक भवोंमें जिन कर्मोंको खपाता है, तीन गुप्तियोंका धारी जीव उन्हें अंतर्मुहूर्तमें खिपा देता है। जिसका ज्ञान चारित्रसे रहित है और जिसका तप सम्यग्दर्शनसे रहित है उसको लिंग ग्रहण -- मुनिवेष धारण करनेसे क्या होनेवाला है? आत्मज्ञानके बिना बहुत शास्त्रोंको पढ़ना बालश्रुत है और आत्मस्वभावके विपरीत चारित्र पालन करना बालचारित्र है।
___ इत्यादि विविध उपदेशोंके साथ मोक्षका स्वरूप तथा उसकी प्राप्तिके साधन बतलाये गये हैं। इन छह पाहुडोंपर भी श्रुतसागरसूरिकृत संस्कृत टीका है। ७. लिंगपाहुड
इसमे २२ गाथाएँ हैं। मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्यकी प्रथम गाथासे इसका पूरा नाम 'श्रमणलिंगपाहुड' है ऐसा प्रकट होता है। श्रमणका अर्थ मुनि है, इसमें मुनियोंके लिंग अर्थात् वेषकी चर्चा की गयी है। बताया गया है कि रत्नत्रय धर्मसे ही लिंग होता है। अर्थात लिंगकी सार्थकता रत्नत्रयरूपधर्मसे है। मात्र लिंग धारण करनेसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। जो पापी जीव जिनेंद्रदेवके लिंगको धारण कर लिंगीके यथार्थ भावकी हँसी कराता है वह यथार्थ वेषको नष्ट करता है। जो निग्रंथ लिंग धारण कर नाचता है, गाता है और बजाता है वह पापी पशु है, श्रमण नहीं है। जो लिंग धारण कर दर्शन, ज्ञान
और चारित्रको उपधान तथा ध्यानका आश्रय नहीं बनाता है किंतु इससे विपरीत आर्तध्यान करता है वह अनंत संसारी बनता है। जो मुनि होकर कांदपी आदि कुत्सित भावनाओंको करता है और भोजनमें रसविषयक गृध्रता करता है वह मायावी पशु है, मुनि नहीं है। जो मुनिलिंग धारण कर अदत्त वस्तुका ग्रहण करता है अर्थात् दातारकी इच्छाके विना अड़कर किसी वस्तुको लेता है तथा परोक्ष दूषण लगाकर दूसरेकी निंदा करता है वह चोरके समान है। जो स्त्रीसमूहके प्रति राग करता है तथा दूसरोंको दोष लगाता है वह पशु है, मुनि नहीं है। जो पुंश्चली स्त्रियोंके घर भोजन करता है तथा उनकी प्रशंसा करता है वह बालस्वभावको प्राप्त होता है और भावसे विनष्ट है अर्थात् द्रव्यलिंगी है। अंतमें कहा गया है कि जो मुनि सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट धर्मका पालन करता है वही उत्तम स्थानको प्राप्त होता है। ८. सीलपाहुड
इसमें ४० गाथाएँ हैं। प्रथम ही भगवान् महावीरको नमस्कार कर शीलगुणोंके वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की गयी है। बताया गया है कि शील और ज्ञानमें विरोध नहीं है किंतु सहभाव है। शीलके बिना विषय, ज्ञानको नष्ट कर देते हैं। ज्ञान बडी कठिनाईसे जाना जाता है तथा जानकर उसकी भावना और भी अधिक कठिनाईसे होती है। जब तक यह जीव विषयोंमें लीन रहता है तब तक ज्ञानको नहीं जानता और ज्ञानको जाने बिना विषयोंसे विरक्त जीव, पुरातन काँको नष्ट नहीं कर सकता। चारित्ररहित ज्ञान, दर्शनरहित लिंगग्रहण और संयमरहित तप ये सभी निरर्थक हैं। जिस प्रकार सुहागा
वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ निरय इयरेहि। छायातवट्ठियाणं पडिपालंताण गुरुभेयं ।।२५।। -- मोक्षपाहुड वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्बत नारकम्। छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान्।। -- इष्टोपदेश