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________________ प्रस्तावना उनहत्तर परमार्थ नहीं है अर्थात् भावलिंगके बिना द्रव्यलिंग परमार्थकी सिद्धि करनेवाला नहीं है। गुण और दोषोंका कारण भाव ही है । भाव विशुद्धिके लिए बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है। जो आभ्यंतर परिग्रहसे सहित है उसका बाह्य त्याग निष्फल है। भावरहित साधु यद्यपि कोटिकोटि जन्मतक हाथोंको नीचे लटकाकर तथा वस्त्रका परित्याग कर तपश्चरण करता है तो भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता। भावके बिना इस जीवने नरकादि गतियोंमें दुःख भोगे हैं। भावके बिना इस जीवने अनंत जन्म धारण कर माताओंका इतना दूध पिया है कि उसका परिमाण समुद्रोंके सलिलसे भी अधिक है। भावोंके बिना इस मरण कर अपनी माताओंको इतना रुलाया है कि उनके नेत्रोंका जल समस्त समुद्रोंके जलसे कहीं अधिक हो जाता है। भावोंके बिना इस जीवने अंतर्मुहूर्तमें छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्ममरण प्राप्त किया है। बाहुबली तथा मधुपिंगके दृष्टांत देकर मुनिको भावशुद्धिके लिए प्रेरित किया गया है। भव्यसेन मुनि अंग और पूर्वके पाठी होकर भी भावश्रमण अवस्थाको प्राप्त नहीं हो सके और शिवभूति मुनि मात्र तुषमाषका बारबार उच्चारण करते हुए केवलज्ञानी बन गये। निष्कर्षके रूपमें कुंदकुंद स्वामीने बतलाया है कि भावसे नग्न हुआ जाता है। बाह्य लिंगरूप मात्र नग्नवेषसे क्या साध्य है? भावसहित द्रव्यलिंगके द्वारा ही कर्मप्रकृतियोंके समूहका नाश होता है। भावलिंगी साधु कौन होता है? इसके उत्तरमें कहा • जो शरीर आदि परिग्रहसे रहित हैं, मान कषायसे पूर्णतया निर्मुक्त है, तथा जिसकी आत्मा आत्मस्वरूपमें लीन है वही साधु भावलिंगी होता है। भावलिंगी साधु विचार करता है कि 'ज्ञानदर्शन लक्षणवाला एक नित्य आत्मा ही मेरा है, कर्मोंके संयोगसे होनेवाले भाव मुझसे बाह्यभाव हैं, वे मेरे नहीं हैं' जिनधर्मकी उत्कृष्टताका वर्णन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रत्नोंमें हीरा और वृक्षोंके समूहमें चंदन उत्कृष्ट हैं उसी प्रकार धर्मोंमें संसारको नष्ट करनेवाला जिनधर्म उत्कृष्ट है। पुण्य और धर्मकी पृथक्ता सिद्ध करते हुए श्री कुंदकुंदाचार्य कहते हैं कि पूजा आदि शुभकार्योंमें व्रतसहित प्रवृत्ति करना पुण्य है, ऐसा जिनमतमें जिनेंद्रदेव ने कहा है और मोह तथा क्षोभसे रहित आत्माका जो परिणाम है वह धर्म है। धर्मका यही लक्षण इन्होंने 'चारित्तं खलु धम्मो' इस गाथा द्वारा प्रवचनसारमें कहा है। लोकमें जो पुण्यको धर्म कहा जाता है वह कारणमें कार्यका उपचार कर कहा जाता है। ६. मोक्ख पाहु १ इसमें १०६ गाथाएँ हैं। मंगलाचरण और प्रतिज्ञावाक्यके अनंतर उस अर्थ - आत्मद्रव्यकी महिमा गायी गयी है जिसे जानकर योगी अव्याबाध अनंत सुखको प्राप्त होता है। वह आत्मद्रव्य, बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्माके भेदसे तीन प्रकारका कहा गया है। उनमें बहिरात्माको छोड़ने और और अंतरात्माके उपायसे परमात्माके ध्यान करनेकी बात कही गयी है। इंद्रियाँ बहिरात्मा हैं अर्थात् इंद्रियोंके समूहस्वरूप शरीरमें आत्मबुद्धि करना बहिरात्मा है, आत्मसंकल्प अंतरात्मा है और कर्मकलंकसे विमुक्त देव परमात्मा है । बहिरात्मा मूढ़दृष्टि जिनस्वरूपसे च्युत होकर स्वकीय शरीरको ही आत्मा समझता है। यही अज्ञान उसके मोहको बढ़ाता है। इसके विपरीत जो योगी शरीरसे निरपेक्ष, निद्वंद्व, निर्मल और निरहंकार रहता है वही निर्माणको प्राप्त होता है। परद्रव्यमें रत रहनेवाला जीव नाना प्रकारके कर्मोंसे बँधता है और परद्रव्यसे विरत रहनेवाला नाना कर्मोंसे छूटता है, यह बंध और मोक्षविषयक संक्षेपमय जिनोपदेश है। तपसे स्वर्ग सभी प्राप्त करते हैं, पर जो ध्यानसे स्वर्ग प्राप्त करता है उसका स्वर्ग प्राप्त करना कहलाता है। ऐसा जीव परभवमें शाश्वत सुख -- मोक्षको प्राप्त होता है। १ पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।। ८१ ।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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