________________
अड़सठ
कुंदकुंद-भारती भगवानने जिसका अर्थ स्पष्ट रूपसे निरूपण किया है, गणधर देवोंने जिसका गुंफन किया है तथा शास्त्रका अर्थ खोजना ही जिसका प्रयोजन है उसे सूत्र कहते हैं। ऐसे सूत्रके द्वारा साधु पुरुष परमार्थको साधते हैं। सूत्रकी महिमा बतलाते हुए कहा है कि सूत्रको जाननेवाला पुरुष शीघ्र ही भव -- संसारका नाश करता है। जिस प्रकार सूत्र अर्थात् सूतसे रहित सूई नाशको प्राप्त होती है उसी प्रकार सूत्र आगमज्ञानसे रहित मनुष्य नाशको प्राप्त होता है। जो जिनेंद्र प्रतिपादित सूत्रके अर्थको, जीवाजीवादि नाना प्रकारके पदार्थोंको और हेय तथा उपादेयोंको जानता है वही सम्यग्दृष्टि है, निश्चय नयसे आत्माका शुद्ध स्वभाव उपादेय -- ग्रहण करनेके योग्य है और अशुद्ध -- रागादिक विभाव हेय -- छोड़नेके योग्य हैं। व्यवहार नयसे मोक्ष तथा उसके साधक संवर और निर्जरा तत्त्व उपादेय हैं तथा अजीव, आस्रव और बंधतत्त्व हेय हैं। जिनेंद्र भगवान्ने जिस सूत्रका कथन किया है वह व्यवहार तथा निश्चयरूप है। उसे जानकरही योगी वास्तविक सुखको प्राप्त होता है तथा 'पापपुंज तो नष्ट करता है। सम्यक्त्वके बिना हरिहर तुल्य भी मनुष्य स्वर्ग जाता है और वहाँसे आकर करोड़ों भव धारण करता है, परंतु मोक्षको प्राप्त नहीं होता।
इसी सुत्तपाहुडमें कहा है कि जो मुनि सिंहके समान निर्भय रहकर उत्कृष्ट चारित्र धारण करते हैं, अनेक प्रकारके व्रत उपवास आदि करते हैं, तथा आचार्य आदिके गुरुतर भार धारण करते हैं परंतु स्वच्छंद करते हैं अर्थात् आगमकी आज्ञाका उल्लंघन कर मनचाही प्रवृत्ति करते हैं वे पापको प्राप्त होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। कुंदकुंद स्वामीने इस सत्रपाहडमें घोषणा की है कि जिनेंद्र भगवानने निग्रंथ मद्राको ही मोक्षमार्ग कहा है. अन्य सब प्रकारके सवस्त्र -- सपरिग्रह वेष मोक्षके अमार्ग हैं। निग्रंथ साधुओंके बालके अग्रभागकी अनीके बराबर भी नहीं है, इसलिए वे एक ही स्थानपर पाणिपात्रमे श्रावकके द्वारा दिये हुए अन्नको ग्रहण करते हैं। मुनि, नग्नमुद्राको धारण कर तिलतुषके बराबर भी परिग्रहको ग्रहण नहीं करते। यदि कदाचित् ग्रहण करते हैं तो उसके फलस्वरूप निगोदको प्राप्त होते हैं। जिनशासनमें तीन लिंग ही कहे गये हैं -- एक निग्रंथ साधुका, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकोंका और तीसरा आर्यिकाओंका। इनके सिवाय अन्य लिंग मोक्षमार्गमें ग्राह्य नहीं है। वस्त्रधारी मनुष्य भले ही तीर्थंकर हो, सिद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं हो सकता। तीर्थंकर भी तब ही मोक्षको प्राप्त होते हैं जब वस्त्ररहित होकर निर्गंथ मुद्रा धारण करते हैं। स्त्रीके निग्रंथ दीक्षा संभव नहीं है इसलिए वह उस भवसे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकतीं। ४. बोधपाहुड
इसमें ६२ गाथाएँ हैं। जिनमें आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिंब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, अर्हत तथा प्रव्रज्याका स्वरूप समझाया है। प्रव्रज्याका वर्णन करते हुए मुनिचर्याका बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है। उन्होंने कहा है कि जो ग्रह तथा परिग्रहके मोहसे रहित है, बाईस परीषहोंको जीतनेवाली है, कषायरहित है तथा पापारंभसे वियुक्त है ऐसी प्रव्रज्या -- दीक्षा हो सकती है। जो शत्रु और मित्रमें समभाव रखती है, प्रशंसा-निंदा, लाभ-अलाभमें समभावसे सहित है तथा तृण और सुवर्णके बीच जिसमें समानभाव होता है वही प्रव्रज्या कहलाती है। जो उत्तम-अनुत्तम घरों तथा दरिद्र तथा संपन्न व्यक्तियोंमें निरपेक्ष है; जिसमे निर्धन और सधन -- सभीके घर आहार लिया जाता है वह प्रव्रज्या है। जिसमें तिलतुषमात्र भी परिग्रह नहीं रहता, सर्वदर्शी भगवान्ने उसीको प्रव्रज्या कहा है। इस बोधपाहुडके अंतमें कुंदकुंद स्वामीने अपने आपको भद्रबाहुका शिष्य बतलाते हुए उनका जयकार किया है। इस संदर्भकी पिछले साम्यमें समन्वयात्मक चर्चा विस्तारसे की गयी है। ५. भावपाहुड
इसमें १६३ गाथाएँ हैं। कुंदकुंद महाराजने मंगलाचरणके बाद कहा है कि भाव ही प्रथम लिंग है, द्रव्यलिंग