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________________ प्रस्तावना सड़सठ २. चारित्र पाहुड चारित्र पाहुडमें ४४ गाथाएँ हैं। इनमें चारित्रका निरूपण किया गया है। चारित्र पाहुडका प्रारंभ करते हुए कुंदकुंद महाराज कहते हैं कि मोक्षाराधनाका साक्षात् कारण सम्यक् चारित्र ही है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र आत्माके अविनाशी -- अनंत भाव हैं। इन्हींमें शुद्धता लानेके लिए जिनेंद्र भगवान्ने दो प्रकारके चारित्रका कथन किया है। चारित्रके दो भेद ये हैं -- एक सम्यक्त्वाचरण और दूसरा संयमाचरण। निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सित, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्त्वके आठ अंग हैं। इन आठ अंगोंमें विशुद्धता प्राप्त हुआ सम्यक्त्व जिन सम्यक्त्व कहलाता है। ज्ञानसहित जिनसम्यक्त्वका आचरण सम्यक्त्वाचरण नामका चारित्र है। इसे दर्शनाचार भी कहते हैं । सम्यक्त्वाचरणके सागार और अनगारके भेदसे दो भेद हैं । गृहस्थोंका आचरण सागाराचरण और मुनियोंका आचरण अनगाराचरण कहलाता है। सागाराचरणके दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभक्तत्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये ग्यारह भेद हैं, इन्हींको ग्यारह प्रतिमा कहते हैं। समंतभद्राचार्यने 'रत्नकरंड श्रावकाचार' में जो ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन किया है उसका मूलाधार यही मालूम होता है सागार संयमाचरण, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रतके और चार शिक्षाव्रतोंके भेदसे बारह भेदोंमें विभाजित है। उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमाओंमें इसी बारह प्रकारके सागाराचरणका पालन होता है। स्थूलहिंसा, स्थूलमृषा, स्थूल चौर्य तथा परदारसे निवृत्त होना और परिग्रह तथा आरंभका परिमाण करना -- सीमा निश्चित करना ये क्रमश: अहिंसादि पाँच अणुव्रत हैं। दसों दिशाओंमें यातायातका परिमाण करना, अनर्थदंडका त्याग करना और भोगोपभोगकी वस्तुओंका परिमाण करना -- ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत हैं। तत्त्वार्थसूत्रकारने दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदंडव्रत इन तीनको गुणव्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग इन चारको शिक्षाव्रत कहा है। समंतभद्र स्वामीने दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत और भोगोपभोग परिमाण इन्हें तीन गुणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्त्य इन्हें चार शिक्षाव्रत कहा है। इन दोनों आचार्योंने सल्लेखनाका वर्णन अलगसे किया है। पंच इंद्रियोंको वश करना, पंच महाव्रत धारण करना, पंच समितियोंका पालन करना और तीन गप्तियोंको धारण करना यह अनगाराचरण अर्थात् मुनियोंका चारित्र है। मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयोंमें रागद्वेष न कर मध्यस्थभाव धारण करना स्पर्शनादि पाँच इंद्रियोंका वश करना है। हिंसादि पाँच पापोंका सर्वथा त्याग करना अहिंसादि पाँच महाव्रत हैं। ये महान् प्रयोजनको साधते हैं, महापुरुष इन्हें धारण करते हैं अथवा स्वयं ये महान हैं इसलिए इन्हें महाव्रत कहते हैं। इन अहिंसादि व्रतोंकी रक्षाके लिए पच्चीस भावनाएँ होती हैं। ये वही पच्चीस भावनाएँ हैं जिनके आधारपर तत्त्वार्थसूत्रकारने यमें अहिंसादि व्रतोंकी पाँच पाँच भावनाओंका वर्णन किया है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान और निक्षेपण ये मतियाँ हैं। ग्रंथांतरोंमें आदाननिक्षेपको एक समिति मानकर प्रतिष्ठापन अथवा व्यत्सर्ग नामकी अलग समिति स्वीकृत की गयी है। इस तरह संयमाचरणका वर्णन करनेके बाद कुंदकुंद स्वामीने कहा है कि जो जीव परम श्रद्धासे दर्शन, ज्ञान, और चारित्रको जानता है वह शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त होता है। सुत्तपाहुड' सुत्तपाहुड -- सूत्र प्राभृतमें २७ गाथाएँ हैं। प्रारंभमें सूत्रकी परिभाषा दिखलाते हुए कहा गया है कि अरहंत १. कुछ ग्रंथोंमें चारित्र पाहुड और सुत्त पाहुड में क्रमभेद है।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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