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छियासठ
कुंदकुंद-भारती ६. मोक्खपाहुड ये छह पाहुड उपलब्ध हुए होंगे इसलिए उन्होंने इनपर संस्कृत टीका लिखकर 'षट्प्राभतम्' के नामसे उनका संकलन कर दिया और माणिकचंद ग्रंथमाला, बंबईसे उसका प्रकाशन हुआ। पीछे चलकर शीलपाहुड और लिंगपाहुड ये दो पाहुड और मिल गये इसलिए पूर्वोक्त छह पाहुडोंमें जोड़कर सबका 'अष्टपाहुड' नामसे संकलन प्रकाशित किया गया। इनपर पं. जयचंद्रजी छाबड़ाने हिंदी वचनिका लिखी तथा बंबई, दिल्ली और मारोठ आदि स्थानोंसे उसका प्रकाशन हुआ। इन सबका संस्कृत और हिंदी टीकासहित एक विशाल संकलन हमारे द्वारा संपादित होकर महावीरजीसे प्रकाशित हो चुका है। ये अष्टपाहुड स्वतंत्र-स्वतंत्र ग्रंथ हैं, परंतु एक संकलनमें प्रकाशित होनेके कारण वे 'अष्टपाहुड' इस एक ग्रंथके रूपमें प्रसिद्ध हो चुके हैं। यहाँ संक्षेपसे इन प्राभृत ग्रंथोंका प्रतिपाद्य विषय निरूपित किया है। १. दंसणपाहुड
___ इसमें ३६ गाथाएँ हैं। आत्माके समस्त गुणोंमें सम्यग्दर्शनकी महिमा सबसे महान् है। सम्यग्दर्शन ही धर्मका मूल कारण है ऐसी कुंदकुंद स्वामीकी देशना है। दंसणपाहुडके प्रारंभमें ही वे लिखते हैं --
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं।
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।२।। जिनेंद्र भगवान्ने शिष्योंके लिए सम्यग्दर्शनमूलक धर्मका उपदेश दिया है सो उसे अपने कानोंसे सुनकर सम्यग्दर्शनसे रहित मनुष्यकी वंदना नहीं करना चाहिए।
जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वास्तवमें वे ही भ्रष्ट हैं क्योंकि सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट मनुष्यको निर्वाणकी प्राप्ति नहीं हो सकती है किंतु जो चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे सम्यग्दर्शनका अस्तित्व रहनेसे पुनः चारित्रको प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। जो मनुष्य सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे भ्रष्ट हैं वे अनेक शास्त्रोंको जानते हुए भी आराधनासे रहित होनेके कारण उसी संसारमें परिभ्रमण करते रहते हैं। सम्यग्दर्शनसे रहित जीव करोड़ों वर्ष तक उग्र तपश्चरण करनेके बाद भी बोधिको प्राप्त नहीं कर सकता जबकि भरत चक्रवर्ती जैसे भव्य जीव दीक्षा लेते ही अंतर्मुहूर्तके अंदर केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। जिस प्रकार मूलके नष्ट हो जानेपर वृक्षके परिवारकी वृद्धि नहीं होती उसी प्रकार सम्यक्त्वके नष्ट हो जानेपर मनुष्यकी श्रीवृद्धि नहीं होती, वह निर्वाणको प्राप्त नहीं कर सकता।
स्वयं सम्यक्त्वसे रहित होकर भी जो दूसरे सम्यक्त्वसहित जीवोंसे अपनी पादवंदना कराते हैं वे मरकर लूले और गूंगे होते हैं अर्थात् स्थावर होते हैं तथा उन्हें बोधिकी प्राप्ति दुर्लभ रहती है। इसी प्रकार जो जानकर भी लज्जा भय या गौरवके कारण मिथ्यादृष्टि जीवकी पादवंदना करते हैं वे पापकी ही अनुमोदना करते हैं, उन्हें भी बोधिकी प्राप्ति नहीं होती।
कुंदकुंद स्वामीने बताया है कि सम्यक्त्वसे ज्ञान होता है, ज्ञानसे समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है और समस्त पदार्थोंकी उपलब्धिको प्राप्त मनुष्य श्रेय तथा अश्रेयको जानता है। इसी दंसणपाहुडमें सम्यग्दृष्टि जीवका लक्षण बतलाते हुए कहा है कि जो छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पंच अस्तिकाय तथा सात तत्त्वोंका श्रद्धान करता है उसे ही सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना व्यवहार नयसे सम्यग्दर्शन है और आत्माका श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन समस्त गुणरूपी रत्नोंमें सारभूत है तथा मोक्षमहल की पहली सीढ़ी है।
जो असंयमी है वह वंदनीय नहीं है भले ही वह वस्त्रोंसे रहित हो। वस्त्रका त्याग देना ही संयमकी परिभाषा नहीं है किंतु उसके साथ सम्यग्दर्शनादि गुणोंका प्रकट होना ही संयमकी परिभाषा है। सम्यग्दर्शनादि गुणोंके विना वस्त्ररहित और वस्त्रसहित -- दोनों ही एक समान हैं, उनमें एक भी संयमी नहीं है।