________________
प्रस्तावना
पैंसठ
उसका कार्य आवश्यक कैसे होगा? जो परभावको छोड़कर निर्मल स्वभाववाले आत्माका ध्यान करता है वह आत्मवश -- स्ववश -- स्वाधीन है, उसका कार्य आवश्यक कहलाता है। आवश्यक प्राप्त करनेके लिए कुंदकुंदस्वामी कितनी महत्त्वपूर्ण देशना देते हैं, देखिए --
आवासं जइ इच्छसि अप्प सहावेसु कुणदि थिरभावं।
तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स।।१४७।। हे श्रमण! यदि तू आवश्यककी इच्छा करता है तो आत्मस्वभावमें स्थिरता कर, क्योंकि जीवका श्रामण्य -- श्रमणपन उसीसे पूर्ण होता है।
और भी कहा है कि जो श्रमण आवश्यकसे रहित है वह चारित्रसे भ्रष्ट माना जाता है इसलिए पूर्वोक्त विधिसे आवश्यक करना चाहिए। आवश्यकसे सहित श्रमण अंतरात्मा होता है और आवश्यकसे रहित श्रमण बहिरात्मा होता है।
समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कहलाते हैं, इनका यथार्थ रीतिसे पालन करनेवाला श्रमण ही यथार्थ श्रमण है। १२ शुद्धोपयोगाधिकार इस अधिकारके प्रारंभमें ही कुंदकुंद स्वामीने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण गाथा लिखी है --
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।१५९।। केवलज्ञानी व्यवहार नयसे सबको जानते देखते हैं, परंतु निश्चयनयसे आत्माको ही जानते देखते हैं।
इस कथनका फलितार्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि केवली निश्चयनयसे सर्वज्ञ नहीं हैं, मात्र आत्मज्ञ हैं, क्योंकि आत्मज्ञानमें ही सर्वज्ञता गर्भित है। वास्तवमें आत्मा किसी भी पदार्थको तब ही जानता है जबकि उसका विकल्प आत्मामें प्रतिफलित होता है। जिस प्रकार दर्पणमें प्रतिबिंबित घटपटादि पदार्थ दर्पणरूप ही होते हैं उसी प्रकार आत्मामें प्रतिफलित पदार्थों के विकल्प आत्मरूप ही होते हैं। परमार्थसे आत्मा उन विकल्पोंसे परिपूर्ण आत्माको ही जानता है अतः आत्मज्ञ कहलाता है। उन विकल्पोंके प्रतिफलित होनेमें लोकालोकके समस्त पदार्थ कारण होते हैं अत: व्यवहारमें उन सबका भी ज्ञाता अर्थात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाता है।
जब जीवका उपयोग -- ज्ञानदर्शन स्वभाव, शुभ-अशुभ रागादिभावोंसे रहित हो जाता है तब वह शुद्धोपयोग कहा जाता है। परिपूर्ण शुद्धोपयोग यथाख्यात चारित्रका अविनाभावी है। यथाख्यात चारित्रसे अविनाभावी शुद्धोपयोगके होनेपर वह जीव अंतर्मुहूर्तके अंदर नियमसे केवलज्ञानी बन जाता है। इस अधिकारमें कुंदकुंद स्वामीने ज्ञान और दर्शनके स्वरूपका सुंदर विश्लेषण किया है।
____ इसी शुद्धोपयोगके फलस्वरूप जीव अष्ट कर्मोंका क्षय कर अव्याबाध, अनिंद्रिय, अनुपम, पुण्य-पापके विकल्पसे रहित, पुनरागमनसे रहित, नित्य, अचल और परके आलंबनसे रहित निर्वाणको प्राप्त होता है। कर्मरहित आत्मा लोकाग्रतक ही जाता है, क्योंकि धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे उसके आगे गमन नहीं हो सकता।
अष्टपाहुड
__ प्रसिद्ध है कि कुंदकुंद स्वामीने चौरासी पाहुड़ोंकी रचना की थी, पर वे सब उपलब्ध नहीं हैं। संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरिको सर्वप्रथम इसके १. दंसणपाहुड, २. चरित्तपाहुड, ३. सुत्तपाहुड, ४. बोधपाहुड, ५. भावपाहुड और