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________________ चौसठ कुंदकुंद-भारती रागादि भावोंका निवारण कर आत्माका ध्यान करता है उसके अवश्य ही प्रायश्चित्त होता है। ९. परमसमाधि अधिकार आत्मपरिणामोंका स्वरूपमें सुस्थिर होना परमसमाधि है। इसकी प्राप्ति भी आत्मध्यानसे ही होती है। कहा हैवयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स । । १२२ ।। जो मुनि समताभावसे रहित है उसके लिए वनवास, आतापनयोग आदि कायक्लेश, नाना प्रकारके उपवास और अध्ययन तथा मौन आदि क्या लाभ पहुँचा सकते हैं? अर्थात् कुछ भी नहीं। कुंदकुंदके वचन देखिए -- किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्त उववासो । अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।। १२४ ।। सामायिक और परमसमाधिको पर्यायवाचक मानते हुए कुंदकुंद स्वामीने १२५-१३३ तक नौ गाथाओंमें स्पष्ट किया है कि स्थायी सामायिक किसके हो सकती है? परमसमाधिका अधिकारी कौन है? उन गाथाओंका भाव यह है कि जो समस्त सावद्य -- पापसहित कर्मोंसे विरक्त है, तीन गुप्तियोंका धारक है तथा इंद्रियोंका दमन करनेवाला है, जो समस्त स-स्थावर जीवोंमें समताभाव रखता है, जिसकी आत्मा सदा संयम, नियम और तपमें लीन रहती है, राग और द्वेष जिसके विकार उत्पन्न नहीं कर सकते, जो आर्त-रौद्र नामक दुर्ध्यानोंसे सदा दूर रहता है, जो पुण्य और पाप भावका निरंतर त्याग करता है और जो धर्म्य तथा शुक्लध्यानको सतत धारण करता है उसीके स्थायी सामायिक परमसमाधि हो सकती है, अन्यके नहीं। -- १०. परमभक्ति अधिकार 'भजनं भक्तिः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार उपासनाको भक्ति कहते हैं। 'पूज्यानां गुणेष्वनुरागो भक्तिः' पूज्य पुरुषोंके गुणोंमें अनुराग होना भक्ति है यह भक्तिका वाच्यार्थ है । सर्वश्रेष्ठ भक्ति निर्वृतिभक्ति है अर्थात् मुक्तिकी उपासना है। निर्वृतिभक्ति, योगभक्ति शुद्धस्वरूपके ध्यानसे संपन्न होती है। निर्वृतिभक्ति किसके होती है? इसका समाधान कुंदकुंद स्वामीके शब्दोंमें देखिए -- सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो । तस्स दुणिव्वुदिभत्ती होदित्ति जिणेहिं पण्णत्तं । । १३४ ।। जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यक्चारित्रकी भक्ति करता है उसीके निर्वृति भक्ति होती है ऐसा जिनेंद्र भगवान्‌ने कहा है। योगभक्ति किसके होती है? इसका समाधान देखिए रागादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू । सो जोगभत्तित्त इदरस्स य कह हवे जोगो । । १३७ ।। जो साधु अपने आपको रागादिके परिहारमें लगाता है अर्थात् रागादि विकारी भावोंपर विजय प्राप्त करता है वही योगभक्तिसे युक्त होता है। अन्य साधुके योग कैसे हो सकता है? ११. निश्चयपरमावश्यकाधिकार जो अन्यके वश नहीं है वह अवश है तथा अवशका जो कार्य है वह आवश्यक है। अवश -- सदा स्वाधीन रहनेवाला श्रमण ही मोक्षका पात्र होता है। जो साधु शुभ या अशुभ भावमें लीन है वह अवश नहीं है, किंतु अन्यवश है,
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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