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प्रस्तावना
जो सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयणमिदि जाणह परम जिणंदस्स उवएसं । । १०९ ।।
तिरेसठ
जो जीव अपने परिणामको समभावमें स्थापित कर आत्माको देखता है -- अनुभवता है वह आलोचन है ऐसा जिनेंद्र भगवान्का उपदेश जानो ।
कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो ।
साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठे । । ११० ।।
कर्मरूप वृक्षका मूलच्छेद करनेमें समर्थ जो समभावरूप स्वाधीन निज परिणाम है वह आलुंछन है । कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं । मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं त्ति विण्णेयं । । १११ । ।
मध्यस्थ भावना स्थित हो कर्मसे भिन्न तथा निर्मलगुणोंके आलयरूप अपनी आत्माका ध्यान करता है वह अविकृतीकरण है अर्थात् ऐसा विचार करना कि कर्मोदयजनित विकार मेरे नहीं हैं।
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धित्ति |
परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं । । ११२ । ।
मद, मान, माया और लोभसे रहित जो निजका भाव है वही भावशुद्धि है ऐसा सर्वत्र जिनेंद्र भगवान्ने भव्य जीवोंके लिए कहा है।
व्यवहार नयसे भूतकालसंबंधी दोषोंका पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है। वर्तमानकाल संबंधी दोषोंका निराकरण करना आलोचना है और भविष्यत्काल संबंधी दोषोंका त्याग करना प्रत्याख्यान है। व्यवहार नय संबंधी प्रतिक्रमणादिकी सफलता तब ही है जब निश्चयनयसंबंधी प्रतिक्रमणादि प्राप्त हो जावें ।
८. शुद्धनयप्रायश्चित्ताधिकार
व्यवहार दृष्टिसे प्रायश्चित्तके अनेक रूप सामने आते हैं, परंतु निश्चय नयसे उसका क्या रूप होना चाहिए इसका दिग्दर्शन श्री कुंदकुंदाचार्यने इस अधिकारमें किया है। वे कहते हैं कि व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा इंद्रियदमनका भावही वास्तविक प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त निरंतर करते रहना चाहिए। आत्मीय गुणोंके द्वारा विकारी भावों पर विजय प्राप्त करना सच्चा प्रायश्चित्त है। इसीलिए कहा है
कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च ।
संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चउविहकसाए ।। ११५ । ।
क्षमासे क्रोधको, मार्दवसे मानको, आर्जवसे मायाको और संतोषसे लोभको इस प्रकार श्रमण इन चार कषायोंको जीतता है।
कषाय विकारी भाव हैं, उनके रहते हुए प्रायश्चत्तकी कोई प्रतिष्ठा नहीं होती, इसलिए क्षमादि गुणोंके द्वारा कषायरूप विकारी भावोंको जीतनेका उपदेश दिया गया है। इसी अधिकारमें कहा है कि अधिक कहनेसे क्या, उत्कृष्ट तपश्चरण ही साधुओंका प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त उनके अनेक कर्मोंके क्षयका हेतु है। अनंतानंत भवोंमें इस जीवने जो शुभाशुभ कर्मोंका समूह संचित किया है वह तपश्चरणरूप प्रायश्चित्तके द्वारा नष्ट हो सकता है, इसलिए तपश्चरण अवश्य ही करना चाहिए। ध्यान भी प्रायश्चित्तका सर्वोपरि रूप है, क्योंकि यह जीव आत्मस्वरूपके आलंबनसे ही समस्त विकारी भावोंका परिहार कर सकता है। ध्यानका फल बतलाते हुए कहा है कि जो शुभ - अशुभ वचनोंकी रचना तथा