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बासठ
कुंदकुंद-भारती करता हुआ जो समस्त वचनोंके विस्तारको छोड़कर शुभ-अशुभ भावोंका निवारण करता है तथा आत्माका ध्यान करता है उसीके प्रत्याख्यान होता है। शुभ-अशुभ भाव, इस जीवके आत्मध्यानमें बाधक हैं अतः प्रत्याख्यान करनेवालेको सबसे पहले शुभ-अशुभ भावोंको समझ उन्हें दूर करनेका प्रयास करना चाहिए। निश्चय प्रत्याख्यानकी सिद्धिके लिए आचार्य महाराजने इस प्रकारकी भावनाओंका होना आवश्यक बतलाया है --
ममत्तिं परिवज्जामि निम्ममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे।।९९।। मैं निर्ममत्व भावको प्राप्त कर ममत्व भावको छोड़ता हूँ। मेरा आलंबन आत्मा ही है, शेष आलंबनोंको मैं छोड़ता हूँ।
आदा खु मज्ज णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।।१००।। मेरे ज्ञानमें आत्मा है, मेरे दर्शनमें आत्मा है, मेरे चारित्रमें आत्मा है। मेरे प्रत्याख्यानमें आत्मा है, मेरे संवर तथा योग -- शुद्धोपयोगमें आत्मा है।
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।१०२।। ज्ञान दर्शन स्वभाववाला एक आत्मा ही मेरा है। परपदार्थोंके संयोगसे होनेवाले शेष सब भाव मुझसे बाह्य हैं - - मेरे स्वभावभूत नहीं हैं।
सम्मं मे सव्वभूदेसि वेरं मज्झ ण केणवि।
आसाए वोसरित्ता णं समाहिं पडिवज्जए।।१०४।। सब जीवोंमें मेरे साम्यभाव है, किसीके साथ मेरा वैरभाव नहीं है, मैं सब आशाओंको छोड़कर निश्चयसे समाधिको प्राप्त होता हूँ।
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो।
संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०५ ।। जो कषायरहित है, इंद्रियोंका दमन करनेवाला है, शूरवीर है, उद्यमवंत है और संसारके भयसे भीत है उसीके सुखस्वरूप प्रत्याख्यान होता है।
७. परमालोचनाधिकार परमालोचना किसके होती है? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं --
णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं ।
अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि ।।१०७।। जो नोकर्म और कर्मसे रहित तथा विभावगुण और पर्यायोंसे भिन्न आत्माका ध्यान करता है ऐसे श्रमण -- मुनिके ही आलोचना होती है।
आगममे १. आलोचन, २. आलुंछन, ३. अविकृतीकरण और ४. भावशुद्धिके भेदसे आलोचनाके चार अंग कहे गये हैं। इन अंगोंके पृथक् पृथक् लक्षण इस प्रकार हैं --