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इकसठ
प्रस्तावना
अगाढ़ दोषोंसे रहित तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। हेयोपादेय तत्त्वोंको जानना सम्यग्ज्ञान है। महाव्रतादि रूप आचरण सम्यक्चारित्र है और उपवासादि तप करना सम्यक् तप है। यह व्यवहारनयका कथन है।
कार्यकी उत्पत्ति बहिरंग और अंतरंग कारणोंसे होती है अतः सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बहिरंग और अंतरंग कारणोंका कथन करते हुए कुंदकुंद स्वामीने कहा है
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खय पहुदी ।। ५३ ।।
अर्थात् सम्यग्दर्शनका बाह्य निमित्त जिनागम तथा उसके ज्ञाता पुरुष हैं और अंतरंग निमित्त दर्शनमोह कर्मका क्षय आदिक हैं।
अंतरंग निमित्त होनेपर कार्य नियमसे होता है परंतु बहिरंग निमित्तके होनेपर कार्यकी उत्पत्ति होनेका नियम नहीं है। हो भी और नहीं भी हो ।
इस अधिकारमें कर्मजनित अशुद्ध भावोंको अनात्मीय बतलाकर शुद्ध भावको आत्मीय बतलाया है। ४. व्यवहार चारित्राधिकार
इस अधिकारमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतोंका, ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन इन पाँच समितियोंका, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीन गुप्तियोंका तथा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठियोंका स्वरूप बतलाया गया है। हिसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह ये पाँच पापके पनाले हैं। इनके माध्यमसे आत्मामें कर्मोंका आस्रव होता है अतः इनका निरंतर निरोध करना सम्यक्चारित्र है । पाँच पापोंका पूर्ण त्याग हो जानेपर पाँच महाव्रत प्रकट होते हैं, उनकी रक्षाके लिए ईर्या आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियोंका पालन करना आवश्यक है। महाव्रतोंकी रक्षाके लिए प्रवचन- आगममें इन आठको माताकी उपमा दी गयी है इसीलिए उन्हें अष्ट प्रवचन मातृका कहा गया है। व्यवहार नयसे यह तेरा प्रकारका चारित्र कहा जाता है। इस अधिकारमें इसी व्यवहार चारित्रका वर्णन है।
५. परमार्थ प्रतिक्रमणाधिकार
इस अधिकारमें कर्म और नोकर्मसे भिन्न आत्मस्वरूपका वर्णन करते हुए सर्वप्रथम कहा गया है कि 'मैं नारकी नहीं हूँ, तिर्यंच नहीं हूँ, मनुष्य नहीं हूँ, देव नहीं हूँ, गुणस्थान, मार्गणा तथा जीवसमास नहीं हूँ, न इनका करनेवाला हूँ न करानेवाला हूँ और न अनुमोदना करनेवाला हूँ। बाल वृद्ध आदि अवस्थाएँ तथा राग द्वेष मोह क्रोध मान माया लोभरूप विकारी भाव भी मेरे नहीं हैं। मैं तो एक ज्ञायक स्वभाववाला जीव द्रव्य हूँ।' इस प्रकार भेदाभ्यास करनेसे जीव मध्यस्थ होता है और माध्यस्थ भावसे चारित्र होता है। उस चारित्रको दृढ़ करनेके लिए प्रतिक्रमण होता है। यथार्थमें प्रतिक्रमण किसके होता है? इसका कितना स्पष्ट वर्णन कुंदकुंद स्वामीने किया है? देखिए --
त्वरणं रागादी भाववारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदित्ति पडिकमणं । ८२ ।।
जो वचनरचनाको छोड़कर तथा रागादिभावोंका निवारण कर आत्माका ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण होता है और ऐसे परमार्थ प्रतिक्रमणके होनेपर ही चारित्र निर्दोष हो सकता है।
६. निश्चय प्रत्याख्यानाधिकार
प्रत्याख्यानका अर्थ है त्याग। वह त्याग विकारी भावोंकाही किया जा सकता है, स्वभावका नहीं ऐसा विचार