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________________ साठ कुंदकुंद-भारती वह यद्यपि पानीके साथ तन्मयीभावको प्राप्त हुई जान पड़ती है तथापि अग्निका संबंध दूर हो जानेपर नष्ट हो जानेके कारण वह सर्वथा तन्मयीभावको प्राप्त नहीं होती। यही कारण है कि शीत स्पर्श तो पानीका स्वभाव कहा जाता है और उष्ण स्पर्श विभाव | स्वभावकी दृष्टिसे आत्मा निर्दंड - मन वचन कायके व्यापाररूप योगसे रहित, निर्द्वद्व, निर्मम, निष्कलंक, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ़, निर्भय, निग्रंथ, निःशल्य, निर्दोष, निष्काम, निःक्रोध, निर्मान और निर्मद है। रूप रस गंध स्पर्श, स्त्री-पुरुष नपुंसक पर्याय, संस्थान तथा संहनन जीवके नहीं है। तात्पर्य यह है कि आत्मा, द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म रहित है। आत्मा रस रूप गंध और स्पर्शसे रहित है, चेतना गुणवाला है, शब्दरहित है, अलिंगग्रहण है और अनिर्दिष्टसंस्थान है। स्वरूपोपादानकी अपेक्षा आत्मा चेतनागुणसे सहित है और पररूपापोहनकी अपेक्षा रसरूपादिसे रहित है। स्वभावदृष्टिसे कहा गया है -- जारिया सिद्धा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति । जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण । । ४७।। अर्थात् जैसे सिद्ध जीव हैं वैसे ही संसारस्थ जीव भी हैं। जैसे सिद्ध जीव जरा मरण और जन्मसे रहित तथा अष्टगुणोंसे अलंकृत हैं वैसे ही संसारी जीव भी मरणादिसे रहित तथा अष्ट गुणोंसे अलंकृत हैं। यहाँ इतना स्मरण रखना आवश्यक है कि यह कथन मात्र स्वभावदृष्टिसे है, वर्तमानकी व्यक्ततासे नहीं । संसारी जीवमें सिद्ध परमेष्ठीके समान होनेकी योग्यता है; इसका इतना ही तात्पर्य है। वर्तमानमें जीवका संसारी पर्याय रूप अशुद्ध परिणमन चल रहा है। चूँकि एक कालमें एक ही परिणमन हो सकता है अतः जिस समय जीवका अशुद्ध परिणमन चल रहा है उस समय शुद्ध परिणमनका अभाव ही है परंतु शुद्ध परिणमनकी योग्यता जीवमें सदा रहती है इसलिए अशुद्ध परिणमनके समय भी उसका शुद्ध परिणमन कहा जाता है। वर्तमानमें दुःख भोगते रहनेपर भी संसारी जीवको सिद्धात्माके सदृश कहनेका तात्पर्य इतना है कि आचार्य इस जीवको आत्मस्वरूपकी ओर आकृष्ट करना चाहते हैं। जैसे किसी धनिक व्यक्तिका पुत्र, माता-पिताके मरनेपर स्वकीय संपत्तिका बोध न होनेसे भिखारी बना फिरता है, उसे कोई ज्ञानी पुरुष समझाता है कि तू भिखारी क्यों बन रहा है, तू तो अमुक सेठके समान लक्षाधीश है, अपने धनको प्राप्त कर इस भिखारी दशासे मुक्ति पा । इसी प्रकार अपने ज्ञान दर्शन स्वभावको भूलकर यह जीव वर्तमानकी अशुद्ध परिणतिमें आत्मीय बुद्धि कर दुःखी हो रहा है, उसे ज्ञानी आचार्य समझाते हैं। अरे भाई! तू तो सिद्ध भगवानके समान है, जन्म-मरणके चक्रको अपना मानकर दु:खी क्यों हो रहा है? आचार्यके उपदेशसे निकट भव्य जीव अपने स्वभावकी ओर लक्ष्य बनाकर सिद्धात्माके समान शुद्ध परिणतिको प्राप्त कर लेते हैं परंतु दीर्घ संसारी जीव स्वभावकी ओर लक्ष्य न देनेके कारण इसी संसारमें परिभ्रमण करते रहते हैं। शुद्धभावाधिकारमें शुद्ध भावकी ओर भी आत्माका लक्ष्य जावे इसी अभिप्रायसे वर्णन किया गया है। यह द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वर्तमानमें जीवकी जो पर्याय है उससे नकारा नहीं किया जा रहा है। मात्र उस ओरसे दृष्टिको हटाकर स्वभावकी ओर लगानेका प्रयास किया जा रहा है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ये चारों उपाय स्वभावसिद्धिको प्राप्त करनेमें परम सहायक हैं। इसीलिए इन्हें प्राप्त करनेका पुरुषार्थ करना चाहिए। विपरीताभिनिवेशसे रहित आत्मतत्त्वका जो श्रद्धान है। वह सम्यग्दर्शन है। संशय, विभ्रम तथा अनध्यवसायसे रहित आत्मतत्त्वका जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है। आत्मस्वरूपमें स्थिर रहना सम्यक्चारित्र है और उसीमें प्रतपन करना सम्यक् तप है। यह निश्चय नयका कथन है। चल, मलिन और
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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