SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना उनसठ जीवराशि तथा समस्त पुद्गल द्रव्योंसे अनंतगुणा है। नियमसारमें कालद्रव्य वर्णनकी ३१ और ३२ वीं गाथामें परमपरागत अशुद्ध पाठ चला आ रहा है। संस्कृत टीकाकारका भी उस ओर लक्ष्य गया नहीं जान पड़ता है। ३१ वी गाथामें 'तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ऐसा पाठ नियमसारमें है, परंतु गोम्मटसार जीवकांडमें 'तीदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणं तु ऐसा पाठ है। नियमसारकी एतद्विषयक संस्कृत टीका भी भ्रांत मालूम पड़ती है। ३२ वीं गाथामें 'जीवादु पुग्गलादोऽणंतगुणा चावि संपदा समया' ऐसा पाठ है, परंतु इस पाठसे समस्त अर्थ गड़बड़ा गया है। इसका सही पाठ ऐसा है 'जीवादु पुग्गलादोऽणंतगुणा भावि संपदा समया' इस पाठके माननेपर भावी कालका वर्णन भी गाथोक्त हो जाता है और उसका जीवकांड मेल खा जाता है। इस पाठमें गाथाका अर्थ होता है कि भावी काल जीव तथा पुद्गल राशिसे अनंतगुणा है और संपदा अर्थात् सांप्रत -- वर्तमानकाल समयमात्र है। लोकाकाशमें -- लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशोंपर जो कालाणु स्थित हैं वे परमार्थ --निश्चयकाल द्रव्य है। जानकर 'भावि' के स्थानपर 'चावि' के पाठ लेखकोंके प्रमादसे आ गया जान पड़ता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्योंका परिणमन सदा शुद्ध ही रहता है परंतु जीव और पुद्गल द्रव्यमें शुद्ध अशुद्ध -- दोनों प्रकारका परिणमन होता है। मूर्त अर्थात् पुद्गल द्रव्यके संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। धर्म, अधर्म और एक जीव द्रव्यके असंख्यात प्रदेश होते हैं, लोकाकाशके भी असंख्यात प्रदेश हैं परंतु आकाशके अनंत प्रदेश हैं । कालद्रव्य एकप्रदेशी है। उपर्युक्त छह द्रव्योंमें पुद्गल द्रव्य मूर्त है, शेष पाँच द्रव्य अमूर्त हैं । एक जीव द्रव्य चेतन है, शेषपाँच द्रव्य अचेतन हैं। पुद्गलका परमाणु आकाशके जितने अंशको घेरता है उसे प्रदेश कहते हैं। ३. शुद्धभावाधिकार जब तत्त्वोंको हेय और उपादेय इन दो भेदोंमें विभाजित करते हैं तब परजीवादि बाह्य तत्त्व हेय हैं और कर्मरूप उपाधिसे रहित स्वकीय स्वयं अर्थात् शुद्ध आत्मा उपादेय है। जब तत्त्वोंको हेय उपादेय तथा ज्ञेय तीन भेदोंमें विभाजित करते हैं तब जीवादि बाह्य तत्त्व ज्ञेय हैं, स्वकीय शुद्ध आत्मा उपादेय है और उसका विभाव परिणमन हेय है। तात्पर्य यह है कि आत्मद्रव्यका परिणमन स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका होता है। जो स्वमें स्वके निमित्तसे होता है। वह स्वभाव परिणमन कहलाता है जेसे जीवका ज्ञान दर्शनरूप परिणमन। और जो स्वमें परके निमित्तसे होते है वह विभाव परिणमन कहलाता है जैसे जीवका रागद्वेषादिरूप परिणमन। इन दोनों प्रकारके परिणमनोंमें स्वभाव परिणमन उपादेय है और विभाव परिणमन हेय है। शुद्ध भावाधिकारमें आत्माको इन्हीं परिणामोंसे पृथक सिद्ध करनेके लिए कहा गया है कि निश्चयसे रागादिक विभाव स्थान, मान अपमानके स्थान, सांसारिक सुखरूप हर्षभावके स्थान, सांसारिक दुःखरूप अहर्षभावके स्थान, स्थितिबंध स्थान, प्रकृतिबंध स्थान, प्रदेशबंध स्थान और अनुभागबंध स्थान आत्माके नहीं हैं। क्षायिक क्षायोपशमिक, औपशमिक और औदयिक भावके स्थान आत्माके नहीं हैं। चातुर्गतिक परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, भय, शोक, कुल, योनि, जीवसमास तथा मार्गणास्थान जीवके नहीं हैं। नहीं होनेका कारण यही एक है कि ये परके निमित्तसे होते हैं। यद्यपि वर्तमानमें ये आत्माके साथ तन्मयीभावको प्राप्त हो रहे हैं तथापि उनका यह तन्मयीभाव त्रैकालिक नहीं है। ज्ञानदर्शनादि गुणोंके साथ जैसा त्रैकालिक तन्मयीभाव है वैसा रागादिकके साथ नहीं है। अग्निके संबंधसे पानीमें जो उष्णता आयी है १. णो खइयभावठाणा णो खयउवसम सहावठाणा य। ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा य।।४१।। --नियमसार
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy