________________
पचास
कुंदकुंद-भारती ज्ञेयतत्त्वाधिकार
जो ज्ञानका विषय हो उसे ज्ञेय तत्त्व कहते हैं। सामान्य रूपसे ज्ञानका विषय अर्थ है। अर्थ द्रव्यमय है और द्रव्य गुण-पर्यायरूप है। इस तरह विस्तारसे द्रव्य, गुण और पर्यायका त्रिक ही ज्ञानका विषय है, वही ज्ञेय है, इसीका इस द्वितीय श्रुतस्कंधमें वर्णन किया गया है। गुण, सामान्य और विशेषके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं क्योंकि ये सभी द्रव्योंमें पाये जाते हैं और चेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि विशेष गुण हैं। क्योंकि ये खास-खास द्रव्योंमें ही पाये जाते हैं। गुण, द्रव्यका सहभावी विशेष है और पर्याय क्रमभावी परिणमन है। जो जीव, पर्यायको ही सबकुछ समझकर उसीमें मूढ़ रहता है -- इष्ट-अनिष्ट पर्यायमें राग द्वेष करता है उसे 'पज्जयमूढा हि परसमया' इन शब्दोंके द्वारा पर्यायमूढ और परसमय कहा गया है। स्वसमय और परसमयका विभाग करते हुए कुंदकुंद स्वामीने कहा है--
जे पज्जयेसु विरदा जीवा परसमयिगत्ति णिहिट्ठा।
आदासहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेयव्वा।।२।। जो जीव पर्यायोंमें निरत -- लीन हैं वे परसमय कहे गये हैं और जो आत्मस्वभावमें स्थित हैं वे स्वसमय जाननेयोग्य हैं। ज्ञाता, द्रष्टा रहना आत्माका स्वभाव है, रागी द्वेषी होना विभाव है तथा नर नारकादि अवस्थाएँ धारण करना आत्माकी पर्यायें हैं। जो जीव, पदार्थोंका ज्ञाता द्रष्टा है अर्थात् उन्हें विराग भावसे जानता देखता है वह स्वसमय है किंतु जो इससे विपरीत पदार्थोंको जानता हुआ राग द्वेष करता है और उसके फलस्वरूप कर्मबंध कर नर नारकादि पर्यायोंमें भ्रमण करता है वह परसमय है। द्रव्यका लक्षण बतलाते हुए कहा है
अपरिचत्त सहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंबद्धं ।
गुणवं च सपज्जायं जत्तं दव्वत्ति वुच्चंति।।३।। जो अपने स्वभावको न छोड़ता हुआ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संबद्ध है अथवा गुण और पर्यायोंसे सहित है उसे द्रव्य कहते हैं। सामान्य रूपसे द्रव्यका लक्षण 'सत्' कहा है और सत् वह है जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्यसे तन्मय हो। उत्पादके विना व्यय नहीं हो सकता ओर व्ययके बिना उत्पाद नहीं हो सकता और ध्रौव्यके बिना उत्पाद व्यय -- दोनों नहीं हो सकते। इससे सिद्ध है कि उत्पादादि तीनों परस्पर अविनाभावको प्राप्त हैं। यद्यपि उत्पादादि तीनों पर्यायोंमें होते हैं, परंतु पर्याय द्रव्यसे अभिन्न है इसलिए द्रव्यके कहे जाते हैं। द्रव्य गुणी है सत्ता गुण है। गुणगुणीमें प्रदेशभेद नहीं होता इसलिए इनमें पृथक्त्व नहीं है। परंतु गुण और गुणीका भेद है, संज्ञा लक्षण आदिकी विभिन्नता है इसलिए अन्यत्व विद्यमान है। पृथक्त्व और अन्यत्वका लक्षण इस प्रकार बतलाया है --
पविभत्तपदेसत्तं पुथत्तमिदि सासणं हि वीरस्स।
अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं भवदि कथमेगं ।।१४।। अविभक्त प्रदेशोंका होना 'पृथक्त्व' है और प्रदेशभेद न होनेपर भी तद्रूप नहीं होना 'अतद्भाव' है।
इस तरह सामान्य रूपसे द्रव्यका लक्षण कहकर उसके चेतन और अचेतनकी अपेक्षा दो भेद किये हैं। चेतन द्रव्य सिर्फ जीव ही है और अचेतन द्रव्य, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे पाँच प्रकारका है। इन्हीं द्रव्योंके लोक और अलोककी तथा मूर्त और अमूर्तकी अपेक्षा भी दो-दो भेद किये हैं। अलोक सिर्फ आकाशरूप है और लोक षड्द्रव्यमय है। मूर्त, पुद्गल द्रव्य है और अमूर्त शेष पाँच द्रव्यरूप है। चूंकि पुद्गल द्रव्य मूर्त है इसलिए उसके