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प्रस्तावना
इक्यावन
स्पर्श, रस, गंध और रूप नामक गुण भी मूर्त हैं और जीवादि पाँच द्रव्य अमूर्त हैं इसलिए उनके गुण भी अमूर्त हैं।
__ जीवादिक समस्त द्रव्य अपना-अपना स्वतःसिद्ध अस्तित्व रखते हैं और लोकाकाशमें एक क्षेत्रावगाह रूपसे स्थित होनेपर भी अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ताको नहीं छोड़ते हैं। इन जीवादि द्रव्योंमें काल द्रव्य एकप्रदेशी है क्योंकि वह एकप्रदेशी होकर भी अपना कार्य करनेमें पूर्ण समर्थ है। परंतु अन्य पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी है क्योंकि उनका एकप्रदेश स्वद्रव्य रूपसे कार्य करनेमें समर्थ नहीं है अथवा स्वभावसे ही कालद्रव्य एकप्रदेशी और शेष पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी हैं। बहुप्रदेशी द्रव्योंको अस्तिकाय कहा है और एकप्रदेशी द्रव्यको अनस्तिकाय कहा है।
यद्यपि जीवद्रव्य स्वभावकी अपेक्षा कर्मरूप पुद्गल द्रव्यके संबंधसे रहित है तथापि अनादिकालसे इनका परस्पर संयोग संबंध चला आ रहा है। कर्मरूप पुद्गल द्रव्यके संबंधसे जीव मलिन हो रहा है और मलिन होनेके कारण बार-बार इंद्रियादि प्राणोंको धारण करता है। देखिए, कितना मार्मिक वचन है --
आदा कम्ममलिमसो धारदि पाणे पुणो पुणो अण्णे।
ण जहदि जाव ममत्तं देहपधाणेसु विसयेसु।।५८।। कर्मसे मलिन आत्मा जब तक शरीरादि विषयोंमें ममत्वभावको नहीं छोड़ता तब तक बार-बार अन्य प्राणोंको धारण करता रहता है। इसके विपरीत प्राणधारण करनेसे कौन छूटता है, इसका वर्णन देखिए --
जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं ज्ञादि।
कम्मेहि सो ण रज्जदि किह तं पाणा अणुचरंति।।५९।। जो इंद्रियादिका विजयी होकर उपयोगस्वरूप आत्माका ध्यान करता है वह कर्मोंसे रक्त नहीं होता तथा जो कर्मोंसे रक्त नहीं होता, प्राण उसका अनुचरण -- पीछा कैसे कर सकते हैं?
छह द्रव्योंमें प्रयोजनभूत द्रव्य जीव ही है अत: उसका विशेष विस्तारसे वर्णन करना आचार्यको अभीष्ट है। जीव द्रव्यकी विशेषता बतलाते हुए उन्होंने कहा है कि आत्मा -- जीव उपयोगात्मक है अर्थात् उपयोग ही आत्माका लक्षण है। वह उपयोग, ज्ञान और दर्शनके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है। यही उपयोग अशुद्ध और शद्धके भेदसे दो प्रकारका होता है। अशुद्ध उपयोगके शुभ और अशुभकी अपेक्षा दो भेद हैं। जीवका जो उपयोग अरहंत, सिद्ध तथा साधु परमेष्ठियोंको जानता है , उनकी श्रद्धा तथा भक्ति करता है तथा अन्य जीवोंपर अनुकंपासे सहित होता है वह शुभ उपयोग कहलाता है
और जो विषयकषायोंसे परिपूर्ण है, मिथ्या शास्त्रश्रवण, दुर्ध्यान और दुष्ट जनोंकी गोष्ठीसे सहित है, उग्र है तथा उन्मार्गमें तत्पर है वह अशुभ उपयोग है। तथा जो अशुभ विकल्पसे हटकर मध्यस्थ भावसे अपने ज्ञान दर्शन स्वभावका ध्यान करता है वह शुद्ध उपयोग है। जब जीवके शुभोपयोग होता है तब वह पुण्यका संचय करता है। जब अशुभोपयोग होता है तब पापका संचय करता है और जब शुभ अशुभ -- दोनों उपयोगोंका अभाव होकर जीव स्वयं शुद्धोपयोग होता है तब किसी भी कर्मका संचय नहीं करता। अर्थात् शुद्धोपयोग कर्मबंधका कारण नहीं है। शुद्धोपयोगी बननेके लिए इस जीवको शरीरादि परद्रव्योंसे पृथग्भावका चिंतन करना होता है। जैसा कि कहा है
नाहं देहो न मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण ण कारयिता अणुमंता णेव कत्तीणं ।।६८।। ऐसा चिंतन करना चाहिए कि "मैं शरीर नहीं हूँ। मन नहीं हूँ। वाणी नहीं हूँ। तथा इन सबके जो कारण हैं मैं उनका न कर्ता हूँ, और न अनुमंता ही हूँ।" क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणमन हैं, उनका कर्ता मैं कैसे हो सकता हूँ।