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________________ प्रस्तावना उनचास जिणसत्थादो अढे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।।८६।। जो पुरुष प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा जिनप्रणीत शास्त्रसे जीवाजीवादि पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त करता है उसके मोहका संचय नियमसे नष्ट हो जाता है, इसलिए शास्त्रका अध्ययन करना चाहिए। द्रव्य, गुण और पर्यायको अर्थ कहते हैं। संसारका प्रत्येक पदार्थ इन तीन रूप ही है अतः इनका ज्ञान लेना आवश्यक है। चूंकि इनका यथार्थ ज्ञान जिनेंद्र प्रतिपादित शास्त्रसे ही हो सकता है इसलिए इन शास्त्रोंका अध्ययन करन आवश्यक है। मोहक्षयका तीसरा उपाय बतलाते हुए कहा है -- माणप्पगमप्पाणं परं च दव्यत्तणाहिसंबद्धं । जाणदि यदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि।।८९।। जो जीव द्रव्यत्वसे संबद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माको तथा शरीरादि परद्रव्यको जानता है वह निश्चयसे मोहका क्षय करता है। तात्पर्य यह है कि स्वपरका भेदविज्ञान मोहक्षयका कारण है। उपर्युक्त पंक्तियोंमें मोहक्षयके जो तीन उपाय बतलाये हैं वे पृथक्-पृथक् न होकर एक-दूसरेसे संबंद्ध हैं। प्रथम उपायमें आत्मलक्ष्यकी ओर जोर दिया गया है और उसका माध्यम अरहंतका ज्ञान बताया गया है अर्थात् अरहंतके द्रव्य गुण पर्याय और अपने द्रव्य गुण पर्यायका तुलनात्मक मनन करनेसे इस जीवका लक्ष्य परसे हटकर स्वकी ओर आकृष्ट होता है और जब स्वकी ओर लक्ष्य आकृष्ट होने लगा तब मोहको नष्ट होनेमें विलंब नहीं लगता। जो मनुष्य दर्पणके माध्यमसे अपने चेहरेपर लगे हुए कालुष्यको देख रहा है वह उसे नष्ट करनेका पुरुषार्थ न करे यह संभव नहीं है। जो जीव मोह -- मिथ्यात्वको नष्ट कर चुकता है वह मोहके आश्रयसे रहनेवाले राग द्वेषको स्थिर नहीं रख सकता। मिथ्यात्व यदि जड़के समान है तो राग द्वेष उसकी शाखाओंके समान हैं। जड़के नष्ट होनेपर शाखाएँ हरी-भरी नहीं रह सकतीं। प्रथम उपायमें इस जीवका लक्ष्य स्वरूपकी ओर आकृष्ट किया गया था परंतु स्वरूपमें लक्ष्यकी स्थिरता आगम ज्ञानके बिना संभव नहीं है इसलिए द्वितीय उपायमें शास्त्राध्ययनकी प्रेरणा की गयी है। मलतः वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा प्रतिपादित और परतः संसार-शरीर भोगोंसे निर्विण्ण परमर्षियोंके द्वारा रचित शास्त्रोंके स्वाध्यायसे स्वरूपकी श्रद्धामें बहुत स्थिरता आती है। तृतीय उपायमें स्वपर भेदविज्ञानकी ओर प्रेरित किया है। स्वाध्यायका फल तो स्व -- अपने शुद्ध स्वरूपका जानना ही है। जिसने ग्यारह अंग और नौ पूर्वोका अध्ययन करके भी स्वको नहीं जाना उसका उतना भारी अध्ययन भी निष्फल ही कहा जाता है। जहाँ स्वका ज्ञान होता है वहाँ परका ज्ञान अवश्य होता है, अतः स्वपर भेदविज्ञानही शास्त्रस्वाध्यायका फल है तथा यही मोहक्षयका प्रमुख साधन है। इस प्रकार तीनों उपायोंमें अपृथक्ता है। इस स्कंध (अध्याय)के अंतमें कहा गया है --- जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्मि। अब्भुट्ठिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो।।१२।। जिसने मोहदृष्टि -- मिथ्यात्वको नष्ट कर दिया है, जो आगममें कुशल है -- आगमका यथार्थ ज्ञाता है और विरागचर्या -- वीतराग चारित्रमें उद्यमवंत है ऐसा महान् -- श्रेष्ठ आत्माका धारक श्रमण -- साधु 'धर्म है' इस प्रकार कहा गया है। यहाँ धर्म-धर्मीमें अभेद विवक्षा कर धर्मीको ही धर्म कहा गया है।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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