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________________ अड़तालीस कुंदकुंद-भारती उनके प्रकट होता है । अनंत ज्ञान होते ही अनंत सुख प्रकट हो जाता है। अनंत सुख आत्मजन्य है, उसमें इंद्रियोंकी सहायता अपेक्षित नहीं होती। यह आत्मजन्य सुख अरहंत तथा सिद्ध अवस्थामें ही प्रकट होता है। स्वाभाविक सुख देवोंके नहीं होता, क्योंकि वे पंचेंद्रियोंके समूहरूप शरीरकी पीड़ासे दुःखी होकर रमणीय विषयोंमें प्रवृत्ति करते हैं। जब तक यह आत्मा सुखानुभव के लिए रमणीय पदार्थोंकी अपेक्षा करता है तब तक उसे स्वाभाविक सुख प्राप्त नहीं हुआ है यह निश्चयसे समझना चाहिए। यह आत्मजन्य सुख शुद्धोपयोगसे ही प्राप्त हो सकता है, शुभोपयोगसे नहीं। शुभोपयोगके द्वारा इंद्र तथा चक्रवर्तीके पदको प्राप्त हुए जीव सुखी जैसे मालूम होते हैं परंतु परमार्थसे सुखी नहीं है। यदि परमार्थसे सुखी होते तो विषयोंमें पंचेंद्रियसंबंधी भोगोपभोगोंमें झंपापात नहीं करते। -- शुभोपयोगके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले इंद्रियजन्य सुखका वर्णन देखिए कितना मार्मिक है सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विषमं । जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।। ७३ ।। इंद्रियों से प्राप्त होनेवाला जो सुख है वह सपर पराधीन है, बाधासहित क्षुधा तृषा आदिकी बाधासे सहित है, विच्छिन्न -- बीच-बीचमें विनष्ट होता रहता है, बंधका कारण है तथा विषम है। वास्तवमें वह दुःखरूप ही है। जब इंद्रियजन्य सुखको परमार्थसे दुःखकी श्रेणीमें ही रख दिया तब पुण्य और पापमें अंतर नहीं रह जाता। दोनोंही सांसारिक दुःखके कारण होनेसे समान हैं। सांसारिक दुःखोंसे उत्तीर्ण होकर शाश्वत सुखकी प्राप्तिके लिए तो शुद्धोपयोग ही शरण ग्राह्य है । पुण्य और पापकी समानता को सिद्ध करते हुए कहा है -- हिमादि जो एवं णत्थि विशेषो त्ति पुण्णपावाणं हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।। ७७ ।। पुण्य और पापमें विशेषता नहीं है - समानता है, ऐसा जो नहीं मानता है वह मोहसे आच्छादित होता हुआ भयंकर अपार संसारमें भ्रमण करता रहता है। हुए मोहसे किस प्रकार निर्मुक्त हुआ जा सकता है, इसका समाधान करते जो जादि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । -- कहा भी है. -- लिखा है सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं । । ८० ।। जो द्रव्य, गुण और पर्यायकी अपेक्षा अरहंतको जानता है वह आत्माको जानता है और जो आत्माको जानता है उसका मोह नियमसे नाशको प्राप्त होता है। भाव यह है कि मोहसे संबंध छुड़ानेके लिए इस जीवको सबसे पहले शुद्ध आत्मस्वभावकी ओर अपना लक्ष्य बनाना आवश्यक है। ज्योंही यह जीव अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वरूपकी ओर लक्ष्य करता है, त्योंही बुद्धिपूर्वक होनेवाले रागादिक भाव नष्ट होने लगते हैं। जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं । । ८१ । । मोहसे रहित और आत्मासे पृथक् स्वरूपको प्राप्त हुआ जीव यदि राग और द्वेषको छोड़ता है तो शुद्ध आत्माको प्राप्त हो जाता है। आजतक जितने अरहंत हुए हैं वे इसी कर्मोंके विविध अंशों -- चार घातिया कर्मोंको नष्ट कर अरहंत हुए हैं तथा उपदेश देकर अंतमें निर्वाणको प्राप्त हुए हैं। मोहक्षयका दूसरा उपाय बतलाते हुए कहा है.
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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