________________
प्रस्तावना
सैंतालीस
शुद्धोपयोगके फलस्वरूप यह जीव उस सर्वज्ञ अवस्थाको प्राप्त करता है जिसमें इसके लिए कुछ भी परोक्ष नहीं रह जाता है। वह लोकालोकके समस्त पदार्थोंको एक साथ जानने लगता है। सर्वज्ञता आत्माका स्वभाव है परंतु वह राग परिणतिके कारण प्रकट नहीं हो पाता। दशम गुणस्थानके अंतमें ज्योंही वह रागपरिणतिका सर्वथा क्षय करता है त्योंही अंतर्मुहूर्तके भीतर नियमसे सर्वज्ञ हो जाता है। आगममें छद्मस्थ वीतरागका काल अंतर्मुहूर्तही बतलाया है जबकि वीतराग सर्वज्ञका काल सिद्ध पर्यायकी अपेक्षा सादि अनंत है। वेदान्त आदि दर्शनोंमें आत्माको व्यापक कहा है, परंतु कुंदकुंद स्वामी ज्ञानकी अपेक्षा ही आत्माको व्यापक कहते हैं। चूँकि आत्मा लोक-अलोकको जानता है अतः वह लोक-अलोकमें व्यापक है। प्रदेश-विस्तारकी अपेक्षा प्राप्त शरीरके प्रमाण ही है।
ज्ञान ज्ञेयको जानता है फिर भी उन दोनोंमें पृथक् भाव है। यह ज्ञानकी स्वच्छताका ही फल है। देखिए, कितना सुंदर वर्णन है --
ण पविट्ठो णाणिट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू।
जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ।।२९।। जिस प्रकार चक्षुरूपको जानता है परंतु रूपमें प्रविष्ट नहीं होता और न रूपही चक्षुमें प्रविष्ट होता है उसी प्रकार इंद्रियातीत ज्ञानका धारक आत्मा समस्त जगत्को जानता है फिर भी उसमें प्रविष्ट नहीं होता है। ज्ञान और ज्ञेयके प्रदेश एक-दूसरेमें प्रविष्ट नहीं होते मात्र ज्ञान-ज्ञेयकी अपेक्षा ही इनमें प्रविष्टका व्यवहार होता है।
केवलज्ञानका धारक शुद्धात्मा, पदार्थोंको जानता हुआ भी उन पदार्थों के रूप न परिणमन करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उनमें उत्पन्न होता है इसलिए अबंधक कहा गया है। यथार्थमें ज्ञानकी हीनाधिकता बंधका कारण नहीं है किंतु उसके कालमें पायी जानेवाली राग द्वेषरूप परिणति ही बंधका कारण है। चूंकि केवलज्ञानी आत्मा राग द्वेषकी
हित है अतः अबंधक है। यद्यपि सयोगकेवली अवस्थामें साता वेदनीयका बंध कहा गया है तथापि स्थिति और अनुभाव बंधसे रहित होनेके कारण उसकी विवक्षा नहीं की गयी है। गाथा निम्न प्रकार है --
ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अत्थेसु।
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो।।५२।। जिस प्रकार ज्ञान आत्माका अनुजीवी गुण है उसी प्रकार सुख भी आत्माका अनुजीवी गुण है। प्रत्येक अवस्थाके अंदर सुखका असीम सागर लहरा रहा है पर उस ओर आत्माका लक्ष्य नहीं जाता। अज्ञानावस्थामें यह आत्मा शरीरादि परपदार्थों में सुखका अन्वेषण करता है और उन्हें सुखका स्थान समझ उनमें रागभाव करता है। आचार्य महाराज आत्माकी इस भूलको निरस्त करनेके लिए कहते हैं कि यह आत्मा स्पर्शनादि इंद्रियोंके द्वारा इष्ट विषयको प्राप्त कर स्वयं स्वभावसे ही सुखरूप परिणमन करता है, शरीर सुखरूप नहीं है और न शरीर सुखका कारण है। शरीरमें वैक्रियिक शरीर सुखोपभोगकी अपेक्षा उत्तम माना जाता है, परंतु वह भी सुखका कारण नहीं है और न सुखका कारण है। जड़रूप शरीरसे चैतन्यगुणके अविनाभावी सुखकी उद्भूति नहीं हो सकती। विषयोंसे सुख नहीं होता, इस विषयमें देखिए कितना स्पष्ट कथन है --
तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कादब्वं।
तध सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति।।६७।। जिस प्रकार जिस जीवकी दृष्टि अंधकारको हरनेवाली होती है उसे दीपकसे क्या प्रयोजन है? इसी प्रकार जिसकी आत्मा स्वयं सुखरूप है उसे विषयोंसे क्या प्रयोजन है?
ज्ञान और सुखका प्रगाढ़ संबंध है। चूंकि अरहंत अवस्थामें अतींद्रिय ज्ञान प्रकट हुआ है अतः अतींद्रिय सुख भी