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________________ छियालीस कुंदकुंद-भारती ज्ञेयाधिकार तथा चारित्राधिकारके भेदसे तीन श्रुतस्कंधोंमें विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंधमें ९२, दूसरे श्रुतस्कंधमें १०८ और तीसरे श्रुतस्कंधमें ७५ गाथाएँ हैं। द्वितीय संस्कृत टीकाकार श्री जयसेनाचार्यके मतानुसार प्रवचनसारमें ३११ गाथाएँ हैं। जिनमें प्रथम श्रुतस्कंधमें १०१, द्वितीय श्रुतस्कंधमें ११२ और तृतीय श्रुतस्कंधमें ९७ गाथाएँ हैं। इन स्कंधोंमें प्रतिपादित विषयोंकी संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है -- १. ज्ञानाधिकार चारित्र दो प्रकारका है -- सराग चारित्र और वीतराग चारित्र। प्रारंभमें इन दोनों चारित्रोंका फल बतलाते हुए कहते हैं कि दर्शन और ज्ञानकी प्रधानतासे युक्त चारित्रसे जीवको देव, धरणेंद्र और चक्रवर्ती आदिके विभवके साथ निर्वाणकी प्राप्ति होती है अर्थात् सराग चारित्रसे स्वर्गादिक और वीतराग चारित्रसे निर्वाण प्राप्त होता है। दोनोंका फल बतलाते हुए फलितार्थ रूपमें यह भाव भी प्रकट किया गया है कि चूंकि जीवका परम प्रयोजन निर्वाण प्राप्त करना है, अतः उसका साधक वीतराग चारित्र ही उपादेय है और स्वर्गादिककी प्राप्तिका साधक सराग चारित्र हेय है। चारित्रका स्वरूप बतलाते हुए कहा है -- चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिट्ठिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।७।। अर्थात् चारित्र ही वास्तवमें धर्म है, आत्माका जो समभाव है वह धर्म कहलाता है तथा मोह -- मिथ्यात्व एवं क्षोभ -- राग द्वेषसे रहित आत्माका जो परिणाम है वह समभाव है। इस तरह चारित्र और धर्ममें एकत्व बतलाते हुए कहा है कि आत्माकी जो मोहजन्य विकारोंसे रहित परिणति है वही चारित्र अथवा धर्म है। ऐसा चारित्र जब इस जीवको प्राप्त होता है तभी वह निर्वाणको प्राप्त होता है। यही भाव हिंदीके महान् कवि प. दौलतरामजीने 'छहढाला में प्रकट किया है - 'जो भाव मोहते न्यारे दृग ज्ञान व्रतादिक सारे। ___ सो धर्म जबहि जिय धारे तब ही सुख अचल निहारे।' मोहसे पृथक् जो दर्शन ज्ञान व्रत आदिक आत्माके भाव हैं वे ही धर्म कहलाते हैं। ऐसा धर्म जब यह जीव धारण करता है तब ही अचल -- अविनाशी -- मोक्षसुखको प्राप्त होता है। धर्मकी इस परिभाषासे, उसका पुण्यसे पृथक्करण स्वयमेव हो जाता है अर्थात् शुभोपयोग परिणतिरूप जो आत्माका पुण्यभाव है वह मोहजन्य विकार होनेसे धर्म नहीं है। उसे निश्चय धर्मका कारण होनेसे व्यवहारसे धर्म कहते हैं। चारित्ररूप धर्मसे परिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोगसे युक्त है तो वह निर्वाण सुखको -- मोक्षके अनंत आनंदको प्राप्त होता है और यदि शुभोपयोगसे सहित है तो स्वर्गसुखको प्राप्त होता है। चूंकि स्वर्गसुख प्राप्त करना ज्ञानी जीवका लक्ष्य नहीं है अत: उसके लिए यह हेय है।अशुभ, शुभ और शद्धके भेदसे उपयोगके तीन भेद हैं। अशुभोपयोगके द्वारा यह जीव कुमनुष्य, तिर्यंच तथा नारकी होकर हजारों दुःखोंको भोगता हुआ संसारमें भ्रमण करता है। तथा शुभोपयोगके द्वारा देव और चक्रवर्ती आदि उत्तम मनुष्य गति के सुख भोगता है। शुद्धोपयोगका फल बतलाते हुए कुंदकुंद स्वामीने शुद्धोपयोगके धारक जीवोंके सुखका कितना हृदयहारी वर्णन किया है। देखिए -- अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं। अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवयोगप्पसिद्धाणं ।।१३।। शुद्धोपयोगसे प्रसिद्ध -- कृतकृत्यताको प्राप्त हुए अरहंत और सिद्ध परमेष्ठीको जो सुख प्राप्त होता है वह अतिशयपूर्ण है, आत्मोत्थ है, विषयोंसे परे है , अनुपम है, अनंत है तथा कभी व्युच्छिन्न -- नष्ट होनेवाला नहीं है।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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