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प्रस्तावना
पैंतालीस
यह अधिकार ३०८ से लेकर ४१५ गाथा तक चलता है।
स्याद्वादाधिकार और उपायोपेय भावाधिकार
ये अधिकार अमृतचंद्र स्वामीने स्वरचित आत्मख्याति टीकाके अंगरूप लिखे हैं। इतना स्पष्ट है कि समयप्राभृत या समयसार अध्यात्म ग्रंथ है। अध्यात्म ग्रंथोंका वस्तुतत्त्व सीधा आत्मासे संबंध रखनेवाला होता है। इसलिए उसके कथनमें निश्चयनयका आलंबन प्रधानरूपसे लिया जाता है। परपदार्थसे संबंध रखनेवाले व्यवहारनयका आलंबन गौण रहता है। जो श्रोता दोनों नयके प्रधान और गौण भावपर दृष्टि नहीं रखते उन्हें भ्रम हो सकता है। उनके भ्रमका निराकरण करनेके उद्देश्यसे ही अमृतचंद्र स्वामीने इन अधिकारोंका अवतरण किया है।
स्याद्वाद अधिकारमें उन्होंने स्याद्वादके वाच्यभूत अनेकान्तका समर्थन करनेके लिए तत्-अतत्, सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक नयोंसे आत्मतत्त्वका निरूपण किया है। अंतमें कलशकाव्योंके द्वारा इसी बातका समर्थन किया है। अमृतचंद्र स्वामीने अनेकान्तको परमागमका जीव-- प्राण और समस्त नयोंके विरोधको नष्ट करनेवाला माना है। जैसा कि उन्होंने स्वरचित 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' ग्रंथके मंगलाचरणमें कहा है --
परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम्।
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्।।२।। आत्मख्याति टीकाके प्रारंभमें भी उन्होंने यही आकांक्षा प्रकट की है --
अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः।
अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम्।।२।। अनेक धर्मात्मक परमात्मतत्त्वके स्वरूपका अवलोकन करनेवाली अनेकान्तमयी मूर्ति निरंतर ही प्रकाशमान रहे।।
इसी अधिकारमें उन्होंने जीवत्वशक्ति, चितिशक्ति आदि ४७ शक्तियोंका निरूपण किया है जो नयविवक्षाके परिज्ञानसे ही सिद्ध होता है।
उपायोपेयाधिकारमें उपायोपायभावकी चर्चा की गयी है, जिसका सार यह है --
पानेयोग्य वस्तु जिससे प्राप्त की जा सकती है वह उपाय है और उस उपायके द्वारा जो वस्तु प्राप्त की जा सकती है वह उपेय है। आत्मारूप वस्तु यद्यपि ज्ञानमात्र वस्तु है तो भी उसमें उपायोपेय भाव विद्यमान है। क्योंकि उस आत्मवस्तुके एक होनेपर भी उसमे साधक और सिद्धके भेदसे दोनों प्रकारका परिणाम देखा जाता है अर्थात् आत्मा ही साधक है और आत्मा ही सिद्ध है। उन दोनों परिणामोंमें जो साधकरूप है वह उपाय कहलाता है और जो सिद्धरूप है वह उपेय कहलाता है। यह आत्मा अनादिकालसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रके कारण संसारमें भ्रमण करता है। जबतक व्यवहार रत्नत्रयको
से अंगीकार कर अनक्रमसे अपने स्वरूपानभवकी वृद्धि करता हआ निश्चय रत्नत्रयकी पूर्णताको प्राप्त होता है तब तक तो साधकभाव है और निश्चय रत्नत्रयकी पूर्णतासे समस्त कर्मोंका क्षय होकर जो मोक्ष प्राप्त होता है वह सिद्धभाव है। इन दोनों भावरूप परिणमन ज्ञानका ही है, इसलिए वही उपाय है और वही उपेय है। यह गुणकी प्रधानतासे कथन है। प्रवचनसार
प्रथम संस्कृत टीकाकार श्री अमृतचंद्रसूरिके मतानुसार प्रवचनसारमें २७५ गाथाएँ हैं और वह ज्ञानाधिकार,