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________________ चवालीस कुंदकुंद-भारती कहा है। यहाँ उपादानप्रधान दृष्टिको लेकर कहा गया है कि चूँकि रागादिरूप परिणमन आत्माका होता है, अतः आत्माके है। अमृतचंद्रसूरिने तो यहाँ तक कहा है कि जो जीव रागादिकी उत्पत्तिमें परद्रव्यको ही निमित्त मानते हैं वे 'शुद्धबोधविधुरांधबुद्धि' हैं तथा मोहरूपी नदीको नहीं तैर सकते रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः । । २२१ । । कितने ही महानुभाव अपनी एकान्त उपादानकी मान्यताका समर्थन करनेके लिए इस कलशका अवतरण दिया करते हैं पर वे श्लोकमें पड़े हुए 'एव' शब्दकी ओर दृष्टिपात नहीं करते। यहाँ अमृतचंद्रसूरि 'एव' शब्दके द्वारा यह प्रकट कर रहे हैं कि जो रागकी उत्पत्ति में परद्रव्यको ही कारण मानते हैं, स्वद्रव्यको नहीं मानते वे मोहनदीको नहीं तैर सकते। रागादिककी उत्पत्तिमें परद्रव्य निमित्त कारण है और स्वद्रव्य उपादान कारण है। जो पुरुष स्वद्रव्यरूप उपादान कारण न मानकर परद्रव्यको ही कारण मानते हैं मात्र निमित्त कारणसे ही उनकी उत्पत्ति मानते हैं वे मोहनदीको नहीं तैर सकते। यह ठीक है कि निमित्त, कार्यरूप परिणत नहीं होता परंतु कार्यकी उत्पत्तिमें उसका साहाय्य अनिवार्य आवश्यक है अंतरंग बहिरंग कारणोंसे कार्यकी उत्पत्ति होती है, यह जिनागमकी सनातन मान्यता है। यहाँ जिस निमित्तके साथ कार्यका अन्वय व्यतिरेक रहता है वही निमित्त शब्दसे विवक्षित है इसका ध्यान रखना चाहिए। -- 1 आत्मा परका - कर्मका कर्ता नहीं है, यह सिद्ध कर जीवको कर्मचेतनासे रहित सिद्ध किया गया है। इस तरह ज्ञानी जीव अपने ज्ञायक स्वभावका ही भोक्ता है, कर्मफलका भोक्ता नहीं है, यह सिद्ध कर उसे कर्मफलचेतनासे रहित सिद्ध किया गया है। ज्ञानी तो एक ज्ञानचेतनासे ही सहित है, उसीके प्रति उसकी स्वत्वबुद्धि रहती है। इस अधिकारके अंतमें एक बात और बड़ी सुंदर कही गयी है। कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि कितने ही लोग निलिंग अथवा गृहस्थ नाना लिंग धारण करनेकी प्रेरणा इसलिए करते हैं कि ये मोक्षमार्ग हैं, परंतु कोई लिंग मोक्षका मार्ग नहीं है, मोक्षका मार्ग तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी एकता है। इसलिए मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेया । नहीं । तत्थेव विहर णिच्च मा विहरसु अण्णदव्वेसु । । ४१२ ।। मोक्षमार्गमें आत्माको लगाओ, उसीका ध्यान करो, उसीका चिंतन करो और उसमें विहार करो। अन्य द्रव्योंमें इस निश्चयपूर्ण कथनका कोई यह फलितार्थ न निकाल ले कि कुंदकुंद स्वामी मुनिलिंग और श्रावकलिंगका निषेध करते हैं। इसलिए वे लगे हाथ अपनी नयविवक्षाको प्रकट करते हैं -- वहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणइ मोक्खरहे । णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि । । ४१४ । । परंतु व्यवहार नय दोनों नयोंको मोक्षमार्गमें कहता है और निश्चय नय मोक्षमार्गमें सभी लिंगोंको इष्ट नहीं मानता । इस तरह विवादके स्थलोंको कुंदकुंद स्वामी तत्काल स्पष्ट करते हुए चलते हैं। जिनागमका कथन नयविवक्षापर अवलंबित है, यह तो सर्वसम्मत बात है, इसलिए व्याख्यान करते समय वक्ता अपनी नयविवक्षाको प्रकट करता चलें और भोक्ता (श्रोता ?) भी उस नयविवक्षासे व्याख्यात तत्त्वको उसी नयविवक्षासे ग्रहण करनेका प्रयास करें तो विसंवाद होनेका अवसर ही नहीं आवे ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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