________________
प्रस्तावना
तैंतालीस होनेवाला सम्यक् चारित्ररूप पुरुषार्थ ही है। जब तक तू इस पुरुषार्थको अंगीकृत नहीं करेगा तब तक बंधनसे मुक्त होना दुर्भर है। मात्र ज्ञान और दर्शनको लिए हुए तेरा सागरोंपर्यंतका दीर्घकाल योंही निकल जाता है पर तू बंधनसे मुक्त नहीं हो पाता। परंतु उस श्रद्धान ज्ञानके साथ जहाँ चारित्ररूपी पुरुषार्थको अंगीकृत करता है वहाँ तेरा कार्य बननेमें विलंब नहीं
लगता ।।
हे जीव! तू मोक्ष किसका करना चाहता है? आत्माका करना चाहता है। पर संयोगी पर्यायके अंदर तूने आत्माको समझाया नहीं ? इस बातका तो विचार कर कहीं इस संयोगी पर्यायको ही तूने आत्मा नहीं समझ रक्खा है ? मोक्षप्राप्तिका पुरुषार्थ करनेके पहले आत्मा और बंधको समझना आवश्यक है। कुंदकुंद स्वामीने कहा है - बंध यता छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं । real सुद्ध पा य घेत्तव्वो । । २९५ ।।
--
जीव और बंध अपने अपने लक्षणोंसे जाने जाते हैं सो जानकर बंध तो छेदनेके योग्य है और जीव आत्मा ग्रहण करनेके योग्य है।
शिष्य कहता है, भगवन्! वह उपाय तो बताओ जिसके द्वारा मैं आत्माका ग्रहण कर सकूँ । उत्तरमें कुंदकुंद महाराज कहते हैं
कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा |
जह पण्णा विहत्तो तह पण्णा एव घित्तव्वो । । २९६ ।।
उस आत्माका ग्रहण कैसे किया जावे? प्रज्ञा भेदज्ञानके द्वारा आत्माका ग्रहण किया जावे। जिस तरह प्रज्ञासे उसे विभक्त किया था उसी तरह उसे प्रज्ञासे ग्रहण करना चाहिए।
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायव्वा । । २९७ ।।
प्रज्ञाके द्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो चेतयिता है वही मैं हूँ और अवशेष जो भाव हैं वे मुझसे पर हैं।
--
1
इस प्रकार स्वपरके भेदविज्ञानपूर्वक जो चारित्र धारण किया जाता है वही मोक्षप्राप्ति का वास्तविक पुरुषार्थ है । मोह और क्षोभसे रहित आत्माकी परिणतिको चारित्र कहते हैं । व्रत, समिति, गुप्ति आदि, इसी वास्तविक चारित्रकी प्राप्ति में साधक होनेसे चारित्र कहे जाते हैं।
यह अधिकार २८८ से लेकर ३०७ गाथातक चलता है।
सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार
आत्मा अनंत गुणोंमें ज्ञान ही सबसे प्रमुख गुण है। उसमें किसी प्रकारका विकार शेष न रह जावे, इसलिए पिछले अधिकारोंमें उक्त अनुक्त बातोंका एक बार फिरसे विचार कर ज्ञानको सर्वथा निर्दोष बनानेका प्रयत्न इस सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकारमें किया गया है।
'आत्मा परद्रव्यके कर्तृत्वसे रहित है' इसके समर्थनमें कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने ही गुण पर्यायरूप परिणमन करता है, अन्य द्रव्यरूप नहीं, इसलिए वह परका कर्ता नहीं हो सकता, अपने ही गुण और पर्यायोंका कर्ता हो सकता है। यही कारण है कि आत्मा कर्मोंका कर्ता नहीं है। कर्मोंका कर्ता पुद्गल द्रव्य है क्योंकि ज्ञानावरणादि रूप परिणमन पुद्गल द्रव्यमें ही हो रहा है। इसी तरह रागादिकका कर्ता आत्मा ही है, परद्रव्य नहीं, क्योंकि रागादिरूप परिणमन आत्मा ही करता है। निमित्तप्रधान दृष्टिको लेकर पहले अधिकारमें पुद्गलजन्य होनेके कारण रागको पौद्गलिक