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बयालीस
कुंदकुंद-भारती निबंध अवस्था प्राप्त नहीं कर पाता। मिथ्यादृष्टि जीव धर्मका आचरण -- तपश्चरण आदि करता भी है परंतु 'धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं' धर्मको भोगके निमित्त करता है, कर्मक्षयके निमित्त नहीं।।
अरे भाई! सच्चा कल्याण यदि करना चाहता है तो अध्यवसानभावोंको समझ और उन्हें दूर करनेका पुरुषार्थ कर।
कितने ही जीव निमित्तकी मान्यतासे बचनेके लिए ऐसा व्याख्यान करते हैं कि आत्मामें रागादिक अध्यवसान स्वतः होते हैं, उनमें द्रव्य कर्मकी उदयावस्था निमित्त नहीं है। ऐसे जीवोंको बंधाधिकारको निम्न गाथाओंका मनन कर अपनी श्रद्धा ठीक करनी चाहिए --
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। रंगिज्जइ अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।।२७८ ।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं।
राइज्जइ अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।।२७९।। जेसे स्फटिकमणि आप शुद्ध है, वह स्वयं ललाई आदि रंगरूप परिणमन नहीं करता किंतु लाल आदि द्रव्योंसे ललाई आदि रगरूप परिणमन करता है। इसी प्रकार ज्ञानी जीव आप शुद्ध है, वह स्वयं राग आदि विभावरूप परिणमन नहीं करता, किंतु अन्य राग आदि दोषों -- द्रव्यकर्मोदयजनित विकारोंसे रागादि विभावरूप परिणमन करता है। श्री अमृतचंद्र स्वामीने भी कलशोंके द्वारा उक्त भाव प्रकट किया है --
न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः।
तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।।१७५।। जिस प्रकार अर्ककांत -- स्फटिकमणि स्वयं ललाई आदिको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार आत्मा स्वयं रागादिके निमित्त भावको प्राप्त नहीं होता, उसमें निमित्त परसंग ही है -- आत्माके द्वारा किया हुआ परका संग ही है।
ज्ञानी जीव स्वभाव और विभावके अंतरको समझता है। वह स्वभावको अकारण मानता है और विभावको सकारण मानता है। ज्ञानी जीव स्वभावमें स्वत्व बुद्धि रखता है और विभावमें परत्व बुद्धि । इसीलिए वह बंधसे बचता है।
यह अधिकार २३७ से लेकर २८७ गाथा तक चलता है।
मोक्षाधिकार
आत्माकी सर्वकर्मसे रहित जो अवस्था है उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द ही इसके पूर्व रहनेवाली बद्ध अवस्थाका प्रत्यय कराता है। मोक्षाधिकारमें मोक्षप्राप्तिके कारणोंका विचार किया गया है। प्रारंभमें ही कुंदकुंद स्वामी लिखते हैं -- जिस प्रकार चिरकालसे बंधनमें पड़ा हुआ पुरुष उस बंधनके तीव्र या मंद या मध्यमभावको जानता है तथा उसके कारणोंको भी समझता है परंतु उस बंधनका -- बेड़ीका छेदन नहीं करता है तो उस बंधनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो जीव कर्मबंधके प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बंधको जानता है तथा उनकी स्थिति आदिको भी समझता है परंतु उस बंधको छेदनेका पुरुषार्थ नहीं करता तो वह उस कर्मबंधसे मुक्त नहीं हो सकता।
इस संदर्भमें कंदकंद स्वामीने बडी उत्कृष्ट बात कही है। मेरी समझसे वह उत्कृष्ट बात महाव्रताचरणरूप सम्यक् चारित्र है। हे जीव! तुझे श्रद्धान है कि मैं कर्मबंधनसे बद्ध हूँ और बद्ध होनेके कारणोंको भी जानता है, परंतु तेरा यह श्रद्धान और ज्ञान तुझे कर्मबंधसे मुक्त करनेवाला नहीं है। मुक्त करनेवाला तो यथार्थ श्रद्धान और ज्ञानके साथ