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________________ बंधाधिकार प्रस्तावना आज तक नहीं हुई। किंतु सम्यग्दर्शनके होते ही वह ऐसी निर्जराका पात्र बन जाता है। 'सम्यग्दृष्टिविरतानन्तवियोजकददर्शनमोहक्षपकोपशमशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जराः' -- आगममें गुणश्रेणि निर्जराके दस स्थान बतलाये हैं। इनमें निर्जरा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। सम्यग्दृष्टि जीवके निर्जरा और बंध दोनों चलते हैं। निर्जरा के कारणोंसे निर्जरा होती है और बंधके कारणोंसे बंध होता है। जहाँ बंधका सर्वथा अभाव होकर मात्र निर्जरा ही निर्जरा होती है होती है ऐसा तो सिर्फ चौदहवाँ गुणस्थान है। उसके पूर्व चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुणस्थान तक निर्जरा और बंध दोनों चलते हैं। यह ठीक है कि जैसे-जैसे यह जीव उपरितन गुणस्थानोंमें चढ़ता जाता है वैसे-वैसे निर्जरामें वृद्धि और बंधमें न्यूनता होती जाती है। सम्यग्दृष्टि जीवके ज्ञान और वैराग्यशक्तिकी प्रधानता हो जाती है इसलिए बंधके कारणोंकी गौणता कर ऐसा किया जाता है कि सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होती है, बंध नहीं। इसी निर्जराधिकारमें कुंदकुंदस्वामीने सम्यग्दर्शनके आठ अंगों का विशद वर्णन किया है। यह अधिकार १९३ से २३६ गाथा तक चलता है। इक्यालीस -- आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनोंही स्वतंत्र द्रव्य हैं और दोनोंमें चेतन अचेतनकी अपेक्षा पूर्व-पश्चिम जैसा अंतर है। फिर भी इनका अनादिकालसे संयोग बन रहा। जिस प्रकार चुंबकमें लोहाको खींचनेकी और लोहामें खिंचनेकी ता है उसी प्रकार आत्मामें कर्मरूप पुद्गलको खींचनेकी और कर्मरूप पुद्गलमें खिंचनेकी योग्यता है । अपनी अपनी योग्यता के कारण दोनोंका एकक्षेत्रावगाह हो रहा है। इसी क्षेत्रावगाहको बंध कहते हैं। इस बंध दशाके कारणोंका वर्णन करते हुए आचार्यने स्नेह अर्थात् रागभावको ही प्रमुख कारण बतलाया है। अधिकारके प्रारंभ में ही वे एक दृष्टांत देते हैं कि जिस प्रकार धूलिबहुल स्थानमें कोई मनुष्य शस्त्रोंसे व्यायाम करता है, ताड़ तथा केले आदिके वृक्षोंको छेदता भेदता है, इस क्रियासे उसका धूलिसे संबंध होता है सो इस संबंधके होनेमें कारण क्या है? उस व्यायामकर्ताके शरीरमें जो स्नेहतेल लग रहा है वही उसका कारण है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव, इंद्रियविषयोंमें व्यापार करता है, उस व्यापारके समय जो कर्मरूपी धूलिका संबंध उसकी आत्माके साथ होता है, उसका कारण क्या है? उसका कारण भी आत्मामें विद्यमान स्नेह अर्थात् रागभाव है। यह रागभाव जीवका स्वभाव नहीं किंतु विभाव है और वह भी द्रव्य कर्मोंकी उदयावस्थारूप कारण उत्पन्न हुआ है। आस्रवाधिकारमें आस्रवके जो चार प्रत्यय - मिथ्यादर्शन, अविरमण, कषाय और योग बतलाये हैं वे ही बंधके भी प्रत्यय - कारण हैं। इन्हीं प्रत्ययोंका संक्षिप्त नाम रागद्वेष अथवा अध्यवसान भाव है। इन अध्यवसान भावोंका जिनके जाता है वे शुभ अशुभ कर्मोंके साथ बंधको प्राप्त नहीं होते। जैसा कि कहा है दाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । अभाव ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणे ण लिंपंति । । २७० ।। मैं किसीकी हिंसा करता हूँ तथा कोई अन्य जीव मेरी हिंसा करते हैं। मैं किसीको जिलाता हूँ तथा कोई अन्य मुझे जिलाते हैं। मैं किसीको सुखदुःख देता हूँ तथा कोई अन्य मुझे सुखदुःख देते हैं -- यह सब भाव अध्यवसान भाव कहलाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव इन अध्यवसानभावोंको कर कर्मबंध करता है और सम्यग्दृष्टि जीव उससे दूर रहता है। सम्यग्दृष्टि जीव बंधके इस वास्तविक कारणको समझता है इसलिए वह उसे दूर कर निर्बंध अवस्थाको प्राप्त होता है परंतु मिथ्यादृष्टि जीव इस वास्तविक कारणको समझ नहीं पाता इसलिए करोडों वर्षकी तपस्याके द्वारा भी वह
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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