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________________ चालीस कुंदकुंद-भारती जीवका ज्ञान, सचमुच ही ज्ञानमें प्रतिष्ठित हो जाता है और इसीलिए जीवके रागादिकके निमित्तसे होनेवाले बंधका सर्वथा अभाव हो जाता है। मात्र योगके निमित्तसे सातावेदनीयका आस्रव और बंध होता है सो भी सांपरायिक आस्रव और स्थिति तथा अनुभाग बंध नहीं, मात्र ईर्यापथ आस्रव और प्रकृति- प्रदेश बंध होता है। अंतर्मुहूर्तके भीतर ऐसा जीव नियमसे केवलज्ञान प्राप्त करता है। अहो भव्य प्राणियो! संवरके इस साक्षात् मार्गपर अग्रसर होओ जिससे आस्रव और बंधसे छुटकारा मिले। संवराधिकार १८१ से १९२ गाथा तक चलता 1 निर्जराधिकार सिद्धोके अनंतवें भाग और अभव्यराशिसे अनंतगुणित कर्म परमाणुओंकी निर्जरा संसारके प्रत्येक प्राणीके प्रतिसमय हो रही है। पर ऐसी निर्जरासे किसीका कल्याण नहीं होता। क्योंकि जितने कर्म परमाणुओंकी निर्जरा होती है। उतने ही कर्मपरमाणु आस्रवपूर्वक बंधको प्राप्त हो जाते हैं। कल्याण उस निर्जरासे होता है जिसके होनेपर नवीन कर्मपरमाणुओंका आस्रव और बंध नहीं होता। इसी उद्देश्यसे यहाँ कुंदकुंद महाराजने संवरके बाद ही निर्जरा पदार्थका निरूपण किया है। संवरके बिना निर्जराकी कोई सफलता नहीं है। निर्जराधिकारके प्रारंभमें ही कहा गया है। -- उवभोगमिंदियेहिं दव्वामचेदणाणमिदराणं । जं कुदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । ।१९३ । । सम्यग्दृष्टि जीवके इंद्रियोंके द्वारा जो चेतन अचेतन पदार्थोंका उपभोग होता है वह निर्जराके निमित्त होता है। अहो! सम्यग्दृष्टि जीवकी कैसी उत्कृष्ट महिमा है कि उसके पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आ रहे हैं उनके उदयकालमें होनेवाला उपभोग भी हो रहा है परंतु उससे नवीन बंध नहीं होता। किंतु पूर्वबद्ध कर्म अपना फल देकर खिर जाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव कर्म और कर्मके फलका भोक्ता अपने आपको नहीं मानता। उनका ज्ञायक तो होता है, परंतु भोक्ता नहीं । भोक्ता अपने ज्ञायक स्वभावका ही होता है। यही कारण है कि उसकी वह प्रवृत्ति निर्जराका कारण बनती है। सम्यग्दृष्टि जीवके ज्ञान और वैराग्यकी अद्भुत सामर्थ्य है। ज्ञान सामर्थ्यकी महिमा बतलाते हुए कुंदकुंद स्वामी ने कहा है कि जिस प्रकार विषका उपभोग करता हुआ वैद्य मरणको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष पुद्गल कर्मके उदयका उपभोग करता हुआ बंधको प्राप्त नहीं होता। वैराग्य सामर्थ्यकी महिमा बतलाते हुए कहा है कि जिस प्रकार अरति भावसे मदिराका पान करनेवाला मनुष्य मदको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार अरतिभावसे द्रव्यका उपभोग करनेवाला ज्ञानी पुरुष बंधको प्राप्त नहीं होता। कैसी अद्भुत महिमा ज्ञान और वैराग्यकी है कि उसके होनेपर सम्यग्दृष्टि जीव मात्र निर्जराको करता है, बंधको नहीं। अन्य ग्रंथोंमें इस अविद्याकी निर्जराका कारण तपश्चरण कहा गया है, परंतु कुंदकुंद स्वामीने तपश्चरणको यथार्थ तपश्चरण बनानेवाला जो जीव और वैराग्य है उसीका प्रथम वर्णन किया है। ज्ञान और वैराग्यके बिना तपश्चरण निर्जराका कारण न होकर शुभ बंधका कारण होता है। ज्ञान और वैराग्यसे शून्य तपश्चरणके प्रभावसे यह जीव अनंत वार मुनिव्रत धारण कर नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो जाता है परंतु उतने मात्रसे संसारभ्रमणका अंत नहीं होता। अब प्रश्न यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवके क्या निर्जरा ही निर्जरा होती है? बंध बिल्कुल नहीं होता? इसका उत्तर करणानुयोगकी पद्धतिसे यह होता है कि सम्यग्दृष्टि जीवके निर्जराका होना प्रारंभ हो गया। मिथ्यादृष्टि जीवके ऐसी निर्जरा
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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